Friday, February 20, 2015

हिन्दी भाषा:कल, आज और कल

हिन्दी भाषा बहुत नई है और अभी निर्माण की प्रक्रिया से गुज़र रही है। अकादमिक शिक्षक, हिन्दी के लेखक, विद्वान कुछ भी कहें, वह सौ साल या ज़्यादा से ज़्यादा 125 साल से अधिक पुरानी नहीं है। उससे पहले जिसे हिन्दी/उर्दू/रेख्ता/हिंदवी आदि कहा जाता था वह सिर्फ पढ़े-लिखे शहरी मुट्ठीभर लोगों के बीच बोली जाने वाली भाषा थी। बाकी बहुसंख्या अवधि, ब्रज, मैथिली, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, मारवाड़ी, बुंदेलखंडी, मालवी, पहाड़ी, हरियाणवी आदि भाषाएँ बोलती थी। आपको याद होगा, ये सभी बोलियाँ उस समय भाषाएँ थीं। उसी समय से (यानी लगभग 200 साल पहले से) इस हिन्दी/उर्दू...के निर्माण की प्रक्रिया थोड़ा करीने से शुरू हुई होगी और इन भाषाओं के ही नहीं, मराठी, बांग्ला, गुजराती, पंजाबी आदि और बाद में अंग्रेज़ी के शब्द उसमें स्थान पाते गए होंगेहिन्दी भाषा के निर्माण की यह प्रक्रिया उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में तेज़ हुई होगी, जब अंग्रेजों ने भी (कलकत्ते में) इन दोनों भाषाओं को सरकारी भाषा के रूप में मान्यता दी और शहरी हिन्दी/उर्दू विद्वानों और साहित्यकारों ने इसे हाथोंहाथ लिया। इस तरह कुल मिलाकर स्वतन्त्रता के बाद यह भाषा (या दोनों भाषाएँ) देश की राजभाषा बनने के लिए कमर कस चुकी थी (जैसा कि बाद में हुआ भी)। लेकिन उपरोक्त सभी भाषाओं और हिन्दी के बीच अन्तःक्रियाएँ जारी रही (यानी इंटरएक्शन जारी रहा), जो आपसी संपर्क बढ़ने, नई ग्लोबल शब्दावलियों के प्रवेश और शहरीकरण तेज़ होने के साथ और तीव्र हुई थीं (या हुआ था)। यह प्रक्रिया और तेज़ हो रही है और इसकी रफ्तार भी उत्तरोत्तर बढ़ रही है (यानी रफ्तार बढ़ने की दर यानी एक्सिलरेशन भी तेज़ हुआ है) और विदेशी संपर्क के चलते और शहरीकरण में आने वाली तेज़ी के अनुपात में भविष्य में यह रफ्तार और तेज़ होगी। मुझे लगता है, यह अवश्यंभावी (इनएविटेबल) है। चाहने से इसे कोई रोक नहीं सकता। आज से पचास या सौ साल बाद हिन्दी का क्या रूप होगा, कहा नहीं जा सकता। अखबारों में लिखी जाने वाली हिन्दी हम (मैं भी इसमें शामिल हूँ) पसंद नहीं करते तो न करें, उसी मिश्रित भाषा में यानी जिसे हिंगलिश कहा जाता है, आज सभी अखबार पढ़े जाते हैं। हिन्दी अखबार पढ़ने वाले किसी भोजपुरी या मारवाड़ी भाषी सामान्य पाठक को उसमें कुछ भी गलत नहीं लगता, शायद किसी अंग्रेज़ी (या मराठी या हरियाणवी) शब्द पर ठिठककर वह एक बार मुस्कुराता होगा और बाद में उस शब्द का प्रयोग करने की खुद कोशिश करता होगा और इस तरह भाषा निर्माण की प्रक्रिया में अपना (सही-गलत) योगदान देता होगा। हम यह नहीं कह सकते कि वह गँवार है, हिन्दी से उसे प्रेम नहीं है या हम ही सही हिन्दी लिख-पढ़ रहे हैं, उसकी पवित्रता को बचाए हुए हैं और वह हिन्दी की हत्या करने के ग्लोबल षड़यंत्र में, अनजाने ही सही, शामिल हो गया है। विद्वानों और हिन्दी लेखकों को चाहिए कि अपने आपको हिन्दी की पवित्रता को बचाए रखने के उत्तरदायित्व से मुक्त कर लें। कोई भी भाषा उसे बोलने वाले बहुसंख्यक बनाते हैं न कि लेखक, प्रोफेसर और विद्वान। और जिस भाषा को मरना है वह मरकर रहती है, किसी को कोसने से कोई लाभ नहीं होता। इस विवेचन से ही पता चलता है कि न जाने कितनी भाषाओं को खुद हिन्दी नुकसान पहुँचाती रही है, अब भी पहुँचा रही है और कुछ समय बाद ये भाषाएँ निश्चय ही समाप्त हो जाएँगी। अभी लिखी-बोली जाने वाली हिन्दी को समाप्त होना होगा तो वह होकर रहेगी लेकिन सौ साल बाद लिखी-बोली जाने वाली हिन्दी हिन्दी न होने के बावजूद हिन्दी ही कहलाती रहेगी, हिंगलिश नहीं। इसलिए छड्ड़ यार, ज़्यादा लोड मत लो और डोकरा हस खाली-पीली हिन्दीकेर बाज़ार के सुकून का बैंड न बजावत जात जा!  

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