पिछले
कुछ दिनों से ऐसे स्वर सुनाई देने लगे हैं कि कांग्रेस और बीजेपी एक ही सिक्के के
दो पहलू हैं। मैं इससे पूरी तरह सहमत हूँ, बल्कि मैं तो बहुत पहले से कहता आ रहा
हूँ कि सांप्रदायिकता/जातिवाद सहित सभी बातों में दोनों में कोई अंतर नहीं है, यह महज
चुनाव जीतने का औज़ार भर है। दोनों के बीच, और दूसरी सभी छोटी-मोटी पार्टियों के
बीच भी, मनमोहन सिंह की नीतियों को तेज़ी से लागू करने की प्रतिस्पर्षा भर है।
हितेन्द्र ने एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया, जो लगभग इस प्रकार है: सन 1991 के बाद
मनमोहन सिंह द्वारा अपनाई गई खुलेपन की नीति ही उसके बाद की सभी सरकारों की
नीतियाँ हैं तो फिर "वैकल्पिक आर्थिक नीतियों के तरफदारों के पास क्या रास्ता
है? वे चुनाव परिणामों की चिंता न करते हुए खुलकर विरोध करें, इन्ही
नीतियों में आंशिक संशोधनों की वकालत करें, या मैदान छोड़ दें?"
यह एक
बहुत महत्वपूर्ण सवाल है क्योंकि इस खुलेपन की नीतियों पर न चलने के कारण सोवियत
यूनियन का पतन भी हुआ और चीन भी आज उन्हीं नीतियों पर चल रहा है, शावेज
जैसे क्रांतिकारी आते रहे मगर सिर्फ तेल की दौलत पर कब तक कामयाब होते, उनका
आकस्मिक निधन भी हो गया। फीडेल कास्त्रो कुछ साल पहले दुनिया भर में हो रह बदलावों
के संदर्भ में पूंजीवाद के बदलते स्वरूप और मार्क्सवाद में भी कुछ मूलभूत बदलावों
की बात कर चुके हैं। भारत में कुछ समय के लिए कम्यूनिस्ट हल्कों में भी इस पर
विचार-विमर्श चला था, जहां अंततः क्लासिकल कम्यूनिस्टों की विजय हुई हालांकि चुनावों में
उन्हें भी उसी पुराने ढर्रे पर चलने का खामियाजा भुगतना पड़ा और पहले बंगाल में और
फिर अब देश भर में उनका कोई नामलेवा नहीं बचा है।
मैं कुछ
बातें प्रस्तावित करना चाहता हूँ:
1)
संघर्ष अब पूंजीपति और श्रमिक के बीच नहीं है। बल्कि संगठित श्रमिक और बाकी दूसरों
के बीच है। पूंजी ईश्वर की तरह भावनाओं, इच्छाओं, नैतिकता से परे सब कुछ जानने वाली, न्याय
करने वाली, सबसे अधिक शक्तिशाली इयत्ता के रूप में सामने है और जिसे हम आज (गलती
से) पूंजीपति कहते हैं, वह भी, अधिक से अधिक किसी पुरोहित की तरह, सिर्फ उसका चाकर है। देशों की सरकारी
पूंजी और कार्पोर्टेस की पूंजी में कोई अंतर नहीं है, सभी वैज्ञानिक
(या ईश्वरीय?) नियम की तरह लाभ कमाने ही निकली हुई हैं। हमारे देश में अभी
कार्पोरेशन्स का सम्पूर्ण चलन नहीं हुआ है इसलिए हम आज भी अंबानी, अदानी, टाटा आदि
को गालियाँ देते रहते हैं, मगर यह सब भ्रम है। आप देखेंगे कि बहुत जल्दी ये सब बड़े-बड़े
कार्पोरेशन्स में बदल जाने वाले हैं, या दूसरे कार्पोरेशन्स द्वारा खरीद लिए
जाने वाले हैं। तब ये लोग उन कार्पोरेशन्स के चेयरमैन, डाइरेक्टर
वगैरह होंगे, दूसरे कर्मचारियों की तरह एक कर्मचारी, जिनकी नौकरियों की कुछ शर्तें और
समझौते होंगे, उसी तरह जैसे किसी सरकारी बाबू की नौकरी के कुछ नियम-कायदे हैं। कुल
मिलाकर, आय में काफी अंतर के बावजूद ये सभी कर्मचारी होंगे, चपरासी, बाबू से
लेकर चेयरमैन तक। उपरोक्त नियम-क़ानूनों और शर्तों के अनुसार ये सब उन कार्पोरेशन्स
या सरकारों के व्यापार के लाभ में हिस्सेदार होंगे।
2) पूंजी
ने अपना स्वरूप खो दिया है यानी जैसे पहले किसी पूंजीपति को खत्म करके या किसी मिल
पर कब्जा करके, यहाँ तककि किसी देश पर कब्जा करके समझ जाता था कि हमने पूंजीवाद पर
विजय पा ली है, तो वैसा अब नहीं होगा। माओवादी भारत पर कब्जा भी कर लें तो भी वे
पूंजी की चपेट से नहीं बच सकते। रूस और चीन दो बड़े उदाहरण है मगर छोटे उदाहरण और
भी बहुत से हैं, ताज़ा उदाहरण नेपाल है। सरकारीकरण के हामी क्लासिकल विद्वानों से कहना
चाहता हूँ कि इस वक़्त चीन की सरकारी पूंजी दुनिया की सबसे क्रूर पूंजी है, जो
अफ्रीका और लैटिन अमरीका के और खुद अपने देश के भी सबसे गरीब लोगों के भयंकर शोषण
में मुब्तिला है, क्योंकि उस पर नागरिक अधिकारों जैसे कानून भी लागू नहीं होते।
3) जहां
पूंजी ने अपना स्वरूप खो दिया है श्रम का स्वरूप बरकरार है मगर उसमें फांक पड़ चुकी
है। एक हैं, पुराने जमाने के पुरोहित, शासक और दूसरे व्यवस्था चलाने वाले लोग, जिन्हें
उनका देवता उनकी सेवा के बदले में ज़्यादा या कम वेतन या दूसरी सुविधाएं प्रदान
करता है और दूसरे हैं वे, जिनका अस्तित्व लगभग प्राकृतिक संपदा जैसा हो गया है। "ह्यूमन
रिसोर्स" शब्द ऐसे ही सामने नहीं आया है। भारत के संदर्भ में ये हैं, बेरोजगार
(जिनकी संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती चली जाने वाली है), अर्धबेरोजगार या अर्ध-मजदूर, खेतिहर
श्रमिक, सीधे प्रकृति पर निर्भर लोग यानी आदिवासी, (हमारे
देश के मामले में) हर धर्मों के दलित आदि-आदि, जो संख्या में लगभग 90% हैं। इनमें से
कुछ तो ऊपर उठकर व्यवस्था के हिस्से बन जाते हैं और कुछ नीचे वहीं पड़े रहते हैं
यानी "ह्यूमन रिसोर्स' ही बने रहते हैं।
4) जहां
पश्चिमी यूरोप जैसे विकसित देशों में वेल्फेयर स्टेट के रूप में (उनकी भौगोलिक
सीमाओं में) समाजवाद आ चुका है,
जो दरअसल पिछले 200/300 सालों में उपनिवेशों के
शोषण से प्राप्त दौलत की प्रचुरता के कारण संभव हुआ है (नोट करें, इस बात
को मार्क्स नहीं देख सकते थे, हालांकि फिर भी वे सबसे पहले इंग्लैंड में समाजवाद आने की बात कर सके
थे।)। बाकी सारी दुनिया में, जो अभी कुल आबादी का 80% हिस्सा है, ये दोनों वर्ग दिखाई देते हैं। इन देशों
में एक तरफ इन दोनों वर्गों के बीच संघर्ष है तो दूसरी ओर इन 80% हिस्से का संघर्ष
उन 20% अपने बंद इलाकों में समाजवाद प्राप्त कर चुके देशों से भी है (यहाँ ‘दुनिया
के मजदूरों एक हों’ जैसे भावुक नारे का खोखलापन भी उजागर हो जाता है)। पहले संघर्ष में
मुद्दा यह है कि संसाधनों पर किसका कब्जा हो, अर्थात 'ह्यूमन रिसोर्स' सहित सभी
संसाधनों के इस्तेमाल और उसके लाभ पर किसकी बात सुनी जाए। दूसरे प्रकार के संघर्ष
में मुद्दा यह है कि एक तरफ अपने बंद इलाकों में समाजवाद प्राप्त कर चुके ये देश
अपनी पूंजी का वैश्वीकरण चाहते हैं,
जोकि उनकी मजबूरी ही है (क्योंकि पूंजी पर उनका
इख्तियार नहीं रह गया है), तो दूसरी तरफ श्रम के वैश्वीकारण में तरह-तरह के रोड़े अटकाते हैं।
हालांकि वे ऐसा बहुत दिनों तक नहीं कर पाएंगे फिर भी हमारे लिए (80% लोगों के लिए)
यह संघर्ष का मुख्य मुद्दा होना चाहिए।
और भी
बिन्दु हो सकते हैं। मैं सिर्फ आज के समाज और दुनिया की परिस्थिति पर ही सोच पाया
हूँ, मुझे नहीं पता कि आखिर बहुसंख्यक जनता यानी 90% भारतीय या 80%
वैश्विक आबादी क्या करे। फिलहाल मैं सिर्फ इतना कह सकता हूँ कि 5% संगठित मजदूरों
को क्रांति के अग्रदूत मानने का पाखंड छोड़कर वास्तविक सर्वहारा को एकजुट करें यानी
वे खुद एकजुट हों, इसके लिए काम करें। उनकी छोटी-छोटी क्रांतियों में शामिल हों और संभव
हो तो उनका नेतृत्व करें। छोटी-छोटी क्रांतियों से मेरा अभिप्राय यह है कि स्थानीय
स्तर पर लोगों कि मांगों के साथ खड़े हों, न कि सीधे भारत-विजय या विश्व-विजय की
बात करें। जैसे, नरेगा में ईमानदारी के साथ पूरा काम हो और मजदूरों को उनकी पूरी
मजदूरी दिलवाना एक महत्वपूर्ण काम हो सकता है। देश में दलितों, आदिवासियों
और बेरोजगारों के सैकड़ों छोटे-छोटे आंदोलन चल रहे हैं, हम उनमें
शामिल हों, जनतंत्र ने हमें औज़ार मुहैया कराए हैं, उनका उपयोग किया जाए। हम वर्तमान
परिस्थितियों में केवल कुछ राहत की बात ही कर सकते हैं।
वैश्विक
संदर्भ में दुनिया भर के ये 80% लोग अपनी अपनी सरकारों से यह मांग करें कि श्रम के
भूमंडलीकरण यानी श्रमिकों की बिना रोकटोक आवाजाही पर विकसित देशों द्वारा लगाए
जाने वाले प्रतिबंधों के विरुद्ध आवाज़ उठाए। इसके अलावा यह मांग भी करें कि
प्राकृतिक स्रोतों के क्रूर दोहन पर रोक लगे और वास्तव में पहले से मौजूद दौलत के
बँटवारे की बात की जाए (वैसे यह दूर की कौड़ी है)। क्योंकि दुनिया के इन 80% लोगों
के लिए यूरोप जैसे समाज की व्यवस्था का बोझ वर्तमान वैज्ञानिक उपलब्धियों और
सामाजिक/राजनैतिक परिस्थितियों में संभव ही नहीं है। (अंतिम दो पैरों में लिखी
बातों पर मैं स्पष्ट नहीं हूँ यानी वर्तमान विश्व और अपने देश में मौजूद
परिस्थितियों पर तो स्पष्ट हूँ मगर इन परिस्थितियों को बदलने के तरीकों के बारे
में बहुत स्पष्ट नहीं हूँ और चाहता हूँ कि इस बारे में विद्वान चर्चा करें। चर्चा
करें मगर बिना किसी पूर्वाग्रह के,
पार्टी लाइन या कुछ सिद्धांतों की जड़
व्याख्याओं से ऊपर उठकर।)