Tuesday, January 27, 2015

झींगुर

(क्रिकेट प्रेमियों के मन में कभी न कभी यह प्रश्न अवश्य उठा होगा कि इस खेल का यह अजीबोगरीब नाम कैसे पड़ा होगा। फुटबाल का फुटबाल समझ में आता है, कबड्डी का कबड्डी समझ में आता है, टेनिस का टेनिस या जूड़ो का जूड़ो समझ में आता है मगर क्रिकेट खेल का क्रिकेट यानी झींगुर से क्या संबंध हो सकता है? इसी पर एक रिसर्च पेपर बहुत पहले पढ़ा था। आप भी पढिए।)

दूसरी ललित कलाओं, मसलन; चित्रकारी, मूर्तिकला, संगीत, नृत्य, साहित्य और नाट्यकला की तरह खेल भी जीवन का प्रतिबिंब बनें इसके लिए काफी समय से लोग प्रयासरत थे। पर होता यह था कि कुछ आधुनिक और बेहद लोकप्रिय खेल थोड़े-बहुत आभिजात्य का प्रदर्शन करते थे तो कुछ अराजकता और लंपटता का। अधिकतर आदिम खेल बिलकुल गणितीय और विज्ञानसम्मत थे कि ताकतवर और तेज़ की जीत सौ प्रतिशत तय होती थी। एक प्रयोग के रूप में हजारों साल पुराने अतीत की नकल पर उन सभी आधुनिक और पौराणिक खेलों का एक मिला-जुला खेल शुरू किया गया पर सारे विश्व की सहभागिता और साल-दर-साल के महाकाय अनुष्ठानों के बाद पाया यह गया कि उससे सारे विश्व में संदेह की गाढ़ी दुर्गंध फैल गई है। इस कई खेलों के एक खेल से यही पता चलता था कि दो-चार हज़ार साल का समय जीवन की विराटता के सामने कितना तुच्छ है क्योंकि पुरातन अतीत के क्रीड़ांगणों में खेले जाने वाले हत्याओं और रक्तपिपासु खेलों से ये खेल बिल्कुल अलग नहीं लगते थे। खेल बिल्कुल स्पष्ट और तर्कपूर्ण थे और उनके परिणाम अवश्यंभावी और सूत्रबद्ध। कलावस्तु बनने के लिए जहाँ उन्हें इन बातों के आभास का निर्माण करते हुए उनके भीतर छिपे सूक्ष्म और सघन यथार्थ का दर्शन कराना चाहिए था, वे सिर्फ एक विशाल, भुरभुरा ढूह भर निर्मित करते थे। हालांकि आयोजकों की जी तोड़ कोशिश और लोगों की सदिच्छा और भोलेपन के कारण अधिकांश लोग यह बात समझ नहीं पाते थे पर उनके अवचेतन में हताशा, असमंजस और इंकार भर रहा था। कुछ दृश्य के आरपार देख पाने वाली आँखें चिंता में थीं। उन्हें एक ऐसा खेल चाहिए था जो विज्ञानसम्मत और गणितीय तो हो पर अपने भीतर जीवन की जटिलताओं को कलात्मक रूप से व्यक्त भी कर सके। हालांकि विज्ञान, गणित और प्रकृति को तकनीकी रूप से जीवन पर लागू करने का रिवाज चरम पर था मगर उससे जीवन की जटिलताएँ सुलझने की जगह और भी गूढ़ होती जाती थीं। इन विषयों के इने-गिने अत्यंत दृष्टिसंपन्न और प्रतिभाशाली लोगों को छोड़कर अधिकांश लोग विज्ञान, गणित और प्रकृति की असंदिग्ध विशुद्धता, त्रुटिहीनता और उसको सब कुछ जान-समझ लेने का एकमात्र उपाय मानने के परंपरागत सोच से बाहर नहीं निकल पाए थे। एक तरफ संभावना सिद्धान्त होने और न होने के बीच वाली खाली जगह में कभी इधर तो कभी उधर सिर फोड़ता तो दूसरी तरफ अनंत असंभावना की परिधि में सूराख करने के प्रयासों को कुचला जा रहा था। दृश्य के भीतर प्रवेश करते ही अंधकार छा जाता था और अच्छे-खासे एहसास के बावजूद आँख-मिचौली के खेल में उसकी आत्मा पकड़ में नहीं आती थी। (क्रमशः)  

हानेके और उनकी फिल्में : (2) द सेवन्थ कोंटिनेंट

द सेवन्थ कोंटिनेंट 

हानेके ने अपने एक इंटरव्यू में कहा है कि उनकी फिल्में ऐसी हैं, जिन्हें बनाना आसान है लेकिन देखना कठिन। “मैं सेट पर हँसी-मज़ाक करता रहता हूँ, निर्माण प्रक्रिया के साथ बहुत अंतरंग नहीं होता और माहौल को हल्का-फुल्का बनाए रखता हूँ।... मैं अपेक्षा करता हूँ कि फिल्म निर्माण के दौरान सभी कलाकार उसके सृजन का आनंद लेंगे लेकिन (चाहता हूँ कि) देखने वाले उनसे विचलित हों, ठगा-सा महसूस करें, यहाँ तककि बहुत अवसादग्रस्त हो जाएँ।” वे लंबे-लंबे मामूली रूटीन दृश्यों से ऐसे आतंक का माहौल रचते हैं कि दर्शक चाहता है, जल्द से जल्द दृश्य समाप्त हो जाए मगर पल भर के लिए भी स्क्रीन से आँख नहीं हटा पाता।

सरसरी तौर पर फिल्म ‘द सेवन्थ कोंटिनेंट’ पति, पत्नी और एक मासूम सी बेटी वाले बहुत सुखी परिवार की कहानी लग सकती है मगर सब कुछ उपलब्ध होने के बावजूद वे सभी एक बेहद नीरस जीवन जी रहे हैं। फिल्म की शुरुआत ही एक घुटन भरे, बोझिल दृश्य से शुरू होती है, जिसमें एक अंधेरे गैराज में कार धुल रही है और परिवार के तीनों सदस्य कार के अंदर बंद हैं। यह दृश्य साढ़े तीन-चार मिनट लंबा है और पहले कार पर तेज़ पानी की बौछार, फिर बड़े से पोछे (मॉप) से उसे साफ किए जाने का दृश्य विस्तार से फिल्माया गया है जबकि अंदर बंद तीनों पात्र अपने भावहीन चेहरे लिए चुपचाप बैठे हैं जोकि इंतज़ार के ऐसे मौकों पर सामान्य ही कहा जाएगा। मगर भूमिका के रूप में दृश्य अपना काम कर जाता है। और जब कार गैराज से बाहर निकलती है तो पूरे स्क्रीन पर आस्ट्रेलिया के उन्मुक्त समुद्री किनारे का दृश्य दिखाई देता है।

फिल्म तीन हिस्सों में विभक्त है, जिनमें 1987, 1988 और 1989 के कुछ दिनों की दिनचर्या को फिल्माया गया है। पहले दो हिस्सों में पात्रों का सामान्य रूटीन है, जिसमें नायिका को नाश्ता बनाते, बेटी को सुलाते, बाज़ार से ख़रीदारी करते दिखाया गया है। नायक अपने कार्यालय में और बेटी स्कूल में व्यस्त है। सभी अपने-अपने काम निपटाते हुए अपने कामों से बेहद असंपृक्त नज़र आते हैं। यहाँ तककि परेशान होने पर परेशानी के या खुश होने पर खुशी के भाव भी उनके चेहरों पर परिलक्षित नहीं होते। पात्रों के चेहरे ही बहुत कम दिखाए गए हैं (पता नहीं, अभिनेताओं ने इसे कैसे स्वीकार किया होगा क्योंकि उनके लिए अभिनय की गुंजाइश ही फिल्म में बहुत कम है) और खाना बनाते या खाते हुए हाथों की मुद्राएँ और बर्तनों की आवाज़ भर हैं। इसी तरह जूते के फीते बांधते समय, दुकानों में ख़रीदारी करते समय या आँखों की जाँच कराते समय लंबे-लंबे दृश्यों में क्रमशः जूते, बिलिंग मशीन या आँखों की पुतलियाँ हैं, चेहरे कहीं नज़र नहीं आते।  

       सामान्य रूप से पात्र अपनी छोटी-मोटी समस्याओं से जूझते और कहीं-कहीं उनसे सफलता पूर्वक पार पाते भी नज़र आते हैं। नायक अपने काम में व्यस्त रहता है इसलिए नायिका अपने ससुर को चिट्ठियाँ लिखती है, जिनमें इन्हीं मामूली बातों, जैसे नायक के ऑफिस की राजनीति, अपने भाई की समस्याएँ, बेटी की बीमारी आदि का ठंडा, गंभीर और विस्तृत वर्णन है। फिल्म के पहले दो हिस्सों में इन घिसी-पिटी दिनचर्या के दृश्यों के बाद अंतिम हिस्से में परिवार को अपने माता-पिता के यहाँ से वापस लौटते दिखाया गया है। घर आते ही नायक पहली बार अपने पिता को पत्र लिखता है, जिसमें वह देश छोडकर आस्ट्रेलिया में बसने के अपने इरादे को स्पष्ट करता है।

हालांकि यह तीसरा हिस्सा ही सबसे अधिक रोमांचक (और खौफनाक) है लेकिन इससे अधिक बताने पर फिल्म की उत्सुकता समाप्त हो सकती है इसलिए फिल्म का विवरण यहीं तक। 

और हाँ, हानेके की फिल्मों में मीडिया पर कोई टिप्पणी न हो ऐसा हो ही नहीं सकता। इस फिल्म में भी कई बार रेडियो पर ईराक-ईरान युद्ध, गोर्बाचेव आदि के समाचार चल रहे होते हैं और फिल्म चित्रविहीन टीवी के चींटियों के झुंड और खरखराहट वाले लंबे दृश्य के साथ समाप्त होती है।  

A death in the family: Karl Ove Knausgaard

**हृदय के लिए जीवन बड़ा सहज-सरल है: जब तक उसमें क्षमता है, वह धड़कता रहता है। फिर रुक जाता है। अभी या कुछ दिन बाद, कभी न कभी हृदय की यह धमक अपने आप बंद हो जाती है और क्योंकि तापमान गिर रहा है, अंग-प्रत्यंग अकड़ रहे हैं और आँतें सूख रही हैं, रक्त शरीर के सबसे निचले बिन्दु की ओर दौड़ने लगता है, जहाँ वह एक कुंड में जमा होता जाता है और सफ़ेद त्वचा पर काले, नाज़ुक से धब्बे जैसा दिखाई देता है। पहले कुछ घंटों में ये परिवर्तन इतना धीरे-धीरे और इतनी शास्त्रीय निष्ठुरता के साथ होते हैं जैसे कोई अनुष्ठान चल रहा हो, जैसे कुछ स्पष्ट नियमों या सभ्य व्यक्तियों के बीच हुए करार की तरह जीवन को मृत्यु के प्रतिनिधियों के सम्मुख आत्मसमर्पण करना हो क्योंकि जब तक जीवन अपनी हार मानकर पीछे हटना शुरू नहीं करता मृत्यु के प्रतिनिधि हमेशा रुके रहते हैं और उसके बाद ही उस नए इलाके पर धावा बोलते हैं। लेकिन इस बिन्दु पर आकर हमला और उसका नतीजा अटल है। बैक्टीरिया के विशालकाय झुंड शरीर के विभिन्न हिस्सों में बेरोकटोक प्रवेश कर जाते हैं। कुछ समय पहले वे कोशिश करते तो उन्हें तत्काल प्रतिरोध का सामना करना पड़ता लेकिन अब हर तरफ शांति है और वे मज़े में शरीर के भीतरी हिस्सों के गहरे, नम अंधकार में प्रवेश कर सकते हैं। ... जीवन जैसे ही शरीर को छोड़ता है उसी पल उस पर मृत्यु का अधिकार हो जाता है। वह लैंप, सूटकेस, दरी, हैंडल, खिड़की जैसा हो जाता है। या खेत, दलदल, झरने, पहाड़, बादल, आकाश। इनमें से कोई भी चीज़ हमारे लिए अजूबा नहीं है। मृत्यु के अधिकार-क्षेत्र की ये सभी वस्तुएँ, तथ्य और प्रक्रियाएँ हर समय हमारे आसपास होती हैं, होती रहती हैं। फिर भी इनमें से कोई भी चीज़ मृत्यु के कब्जे में आ चुके शरीर जैसी अरुचि पैदा नहीं करती, कम से कम, जिस तरह हम लाश को अपनी दृष्टि से दूर रखने की जीतोड़ कोशिश करते हैं, उससे यही सिद्ध होता है।...वह शहर जो अपने मृतकों को लोगों की नज़रों से दूर नहीं रखता, जो मरे हुए लोगों को वहीं छोड़ देता है, जहाँ उनकी मृत्यु हुई थी, सड़कों-गलियों में, पार्कों में या पार्किंग-स्थलों में, वह शहर शहर नहीं नर्क है। यहाँ इस बात का कोई महत्व नहीं है कि यह नर्क हमारे जीवन का यथार्थ है और निश्चय की उसे अधिक सत्यता के साथ प्रतिबिम्बित करता है। हम जानते हैं कि यही सच है लेकिन उसका सामना नहीं करना चाहते। इसी का नतीजा है स्वयं का यह सामूहिक दमन जो अपने मृतकों को पर्दे में रखने की संगठित कार्यवाही में परिलक्षित होता है।...लेकिन यह बता पाना सरल नहीं है कि आखिर किस चीज़ का दमन किया जा रहा है। निश्चय ही वह मृत्यु नहीं हो सकती क्योंकि समाज में उसकी उपस्थिति निरंतर और सुस्पष्ट है। अखबारों में प्रकाशित और टीवी समाचारों में प्रदर्शित प्रतिदिन मरने वालों की संख्या में थोड़ा-बहुत अंतर हो सकता है मगर वार्षिक औसत निकालेंगे तो वह हर साल के लिए लगभग समान होगा और क्योंकि मृत्यु के कारण इतनी ज़्यादा विविधता लिए हुए होते हैं कि उन्हें टालना लगभग असंभव है। लेकिन इस तरह की मृत्यु आपके अंदर कोई डर पैदा नहीं करती। इसके विपरीत, हम उसे आँख गड़ाकर देखते हैं, उन्हें देखने के लिए खुशी-खुशी पैसे खर्च करते हैं। अगर कथा-कहानियों में होने वाली मौतों को इनमें जोड़ लें तो उस सामाजिक व्यवस्था को समझ पाना और भी मुश्किल होगा जो वास्तविक जीवन में मृत्यु को इतना छिपाकर रखना आवश्यक समझती है। ...** 
आदि आदि...

तय करें कि आप किस तरफ हैं

मोटर साइकल लेकर आप थोड़ा शहर छोडकर 40-50 किलोमीटर गाँवों की तरफ निकल जाइए, आपको टूटे-फूटे घरों के बाहर अच्छे खासे जवान लोग यूँ ही बैठे मिलेंगे। अगर आप अपनी मोटर साइकल रोक देंगे तो आपको घेर लेंगे। आसपास उनके बच्चे रो रहे होंगे या धींगा-मस्ती कर रहे होंगे और महिलाएँ भी ऐसे ही खटर-पटर करती मिलेंगी। ये लोग कौन हैं? सोचें कि आखिर जब वहाँ से कुछ ही दूरी पर आप और आप जैसे लोग कोई न कोई काम, चाहे वह कोई झण्डा लिए आंदोलन ही क्यों न कर रहे हों, कुछ न कुछ कर रहे हैं, ये लोग ऐसे अलसाए से बेकार क्यों बैठे हैं।

वैसे तो इन लोगों को खेतिहर 'मजदूर' कहा जाता है लेकिन ये दरअसल निचली जातियों वाले बेरोजगार या अर्ध बेरोजगार हैं, जिन्हें कभी-कभी कोई काम मिल जाता है मगर कोई पक्का काम नहीं है। क्योंकि अगर मजदूर होते और काम नहीं होता तो कोई न कोई झण्डा इनके हाथ में होता, अपने काम की सुरक्षा के लिए कोई न कोई आंदोलन कर रहे होते। सरकार की रोजगार गारंटी योजना में भी इन मजदूरों के लिए 100 दिन के रोजगार का ही प्रावधान है और वह भी सरकारी भ्रष्टाचार के चलते ज़्यादा से ज़्यादा 40% तक ही मिल पा रहा है। 2011 में ऐसे तथाकथित 'मजदूरों' की संख्या 14.5 करोड़ थी और यह संख्या 2000 प्रतिदिन की दर से बढ़ रही है। सरकारी आँकड़े भी इन्हें 'मजदूर' कहती है और सभी राजनीतिक दल भी। संगठित क्षेत्रों में रोजगार पाए 4-5% मजदूरों की यूनियने हैं, जो इन्हें अपना कामरेड कहती हैं क्योंकि ऐसा कहने पर उनकी संख्या का बल उन्हें मिल जाता है। लेकिन दोस्तों, यह एक बहुत बड़ा फ्रॉड है, घपला है जो इनके साथ किया जा रहा है। दरअसल ये लोग 'मजदूर' नहीं, बेरोजगार हैं। न तो ये किसी पूंजीपति, कार्पोरेशन, किसान या सरकार के नौकर हैं और न ही खुद इनके पास कमाई का कोई जरिया है। इनका कोई संगठन भी नहीं है कि ये कोई आंदोलन करें।

देश में आदिवासियों की संख्या लगभग 7 करोड़ है। ये लोग जंगलों और पहाड़ों को अपनी मिल्कियत समझने वाले भोले-भाले लोग है, जिनके पास दुनिया के नियमों के अनुसार देखा जाए तो कोई संपत्ति नहीं है। उन्हें समझ में नहीं आता कि वे जिन जंगलों, पहाड़ों और जिस भूमि पर हजारों सालों से रह रहे थे अब उनकी नहीं है, लोग (सरकारें और पूंजीपति) उसे खरीद-बेच रहे हैं। वे अपने ही घरों में अपने आपको अजनबी महसूस कर रहे हैं। इनके लिए सरकारी आँकड़ों में या तो कोई खास वर्ग नहीं है और उन्हें या तो आदिवासी कह दिया जाता है या फिर उन्हें भी खेतिहर 'मजदूर' वाले खाने में डाल दिया जाता है। इनके पास अगर कोई रोजगार है तो जंगल से फल-फूल या लकड़ी ले आना, मामूली खेती करना और किसी तरह ज़िंदा रहना। और वे भी अब उनके नहीं रहे। ठीक से देखेंगे, अपने आधुनिक मापदंड ईमानदारी से उन पर लागू करेंगे तो आप भी उन्हें बेकार या बेरोजगार ही कहेंगे। और जब बेरोजगार हैं, यानी मजदूर नहीं हैं तो फिर उनका भी कोई संगठन नहीं है। न कोई झण्डा है और न ही कोई आंदोलन है।


जंगलों, पहाड़ों और गाँवों के बाद अब शहरों में भी यही स्थिति मुँह बाए खड़ी है। कोयला मजदूरों के आंदोलन के बाद बैंको का आंदोलन भी असफल हो गया है। 15000 लोगों को आईटी कंपनियों से निकाला जा चुका है और यह पहली किस्त है। संगठित क्षेत्रों में काम करने वाले मजदूरों के बेरोजगार होने की रफ्तार अब बहुत तेज़ होने वाली है। शहर में संगठित क्षेत्रों में ऐसे बेरोजगार हुए लोग कोई न कोई आंदोलन करेंगे, करते ही रहते हैं क्योंकि शहरों में हुई तोड़-फोड़ को सुनने और देखने वाले लोग दुनिया भर में बड़ी संख्या में मिल जाते हैं। लेकिन अच्छी तरह समझ लीजिए, जब तक उपरोक्त बहुसंख्यक सर्वहारा को यानी ऐसे मजदूरों को जिनके पास कोई काम नहीं है या जिनकी छटनी कर दी गई है या सीधे शब्दों में ऐसे बेरोजगारोंको सही मानी में, पूरी वामपंथी गरिमा और इज्ज़त के साथ आप अपने साथ नहीं लेते तब तक आपका कोई भला नहीं होने वाला है। मार्टिन निमोलार और मुक्तिबोध की कविताओं का पाठ बहुत कर लिया मित्रों, कम से कम अब उन पर अमल करने का वक़्त है।  वे आदिवासियों को लूटने आए, आप 67 साल चुप रहे, वे हिन्दू/मुसलमान दलितों के लिए आए, आप बगले झाँकते रहे, किसी न किसी बहाने उनके दमन पर चुप रहे और आज भी हैं, खेतिहर बेरोजगार (मजदूर नहीं) भूखों मरते रहे, आप चुप रहे। अब वे आपकी जमीनें छीन रहे हैं, आपकी खदानें बेच रहे हैं, आपकी नौकरियाँ छीन रहे हैं, आपकी तनख़्वाहें नहीं बढ़ाते तो आपको तकलीफ हो रही है। मैं जानता हूँ, अधिकांश संगठित मजदूर यानी तथाकथित सर्वहारा इसमें भी यही राह देख रहा है कि किसी न किसी तरह उसका जुगाड़ लग जाए, बाकी जाएँ भाड़ में। कुछ दिन पहले एक मीडियाकर्मी को निकाल दिया गया और अचानक वे शहीद हो गए। ऐसी शहादत शहादत नहीं मतलबपरस्ती है। फिर भी अभी भी समय है, तय करें कि आप किस तरफ हैं!   

पल्प फिक्शन

लगातार हिट फिल्में देने वाले टैरेंटिनो का मैं प्रशंसक नहीं हूँ। उसकी फिल्मों में बहुत सारा बदला और हिंसा है। ऐसा नहीं कि उसकी फिल्मों में सिर्फ हिंसा होने के कारण मैं उन्हें नापसंद करता हूँ, बहुत सारी हिंसक फिल्में मुझे पसंद भी हैं। मुझे उसकी अधिकांश फिल्में लगभग बेहूदा मज़ाक, या बेहूदा मनोरंजन लगती हैं। खैर...
लेकिन उसकी ‘पल्प फिक्शन’ गजब की फिल्म है, जबकि वह उसकी शुरुआती फिल्म है। इस फिल्म में उसी बेहूदेपन या बेतुकेपन (absurdity) को उसने ऊँचाइयों तक पहुँचाया है, जो बाद की उसकी फिल्मों में जम नहीं पाता यानी कंविन्सिंग नहीं लगता। इतना ज़्यादा ‘एफ वर्ड’ है कि एकाध बार शब्द के हिज्जों के बीच में भी आ जाता है। (उम्मीद है भारतीय माइथोलोजिकल साहित्य को सत्य मानने वाले और सेक्सुअली परवर्ट भारतीय यह प्रश्न नहीं करेंगे कि बेहूदापन कंविन्सिंग कैसे हो सकता है)। इसमें दो लफूट हैं, जिनकी ऊलजलूल बातों में अचानक कोई वाक्य बड़ी दर्शनिकता लिए आ जाता है। एक विशालकाय गैंगस्टर है, जिसे दो दुबले-पतले शोहदे रस्सियों से बांध देते हैं और उसका यौन शोषण करने में सफल हो जाते हैं। गैंगस्टर की नशेड़ी रखैल है, जिसे खुद गैंगस्टर दूसरों के साथ घूमने-फिरने के लिए भेजता है, वह फूटमसाज करवाती है और जब नशे में मौत के बिल्कुल करीब होती है तो चाकू की तरह छाती में घोंपा गया एक इंजेक्शन लगते ही उठ बैठती है। बाइबल का ईज़ीकिएल 25:17 है, जो बाइबल में नहीं है (हालांकि हो भी सकता था)। एक सोने की घड़ी है, जिसे द्वितीय विश्व युद्ध और विएतनाम युद्ध में ब्रूस विलिस की दो पीढ़ियाँ अपने पिछवाड़े में छिपाकर किसी तरह बचाकर रखती हैं, ताकि बचपन में उनका कोई मित्र उसे गिफ्ट दे सके। कीमती सामान से भरा एक ब्रीफकेस है, शुरुआत से जिसके इर्द-गिर्द कहानी घूमती रहती है मगर न तो यह स्पष्ट होता है कि आखिर बैग गंतव्य तक पहुँचा या नहीं और न ही पता चलता है कि उस बैग में क्या था। आदि आदि...
गजब के संवाद, शानदार सम्पादन, निर्देशन, अभिनय, संगीत। सब कुछ लाजवाब!

Friday, January 16, 2015

वर्तमान विश्व परिदृश्य पर मार्क्सवादी नज़रिये से अपने दो आने

पिछले कुछ दिनों से ऐसे स्वर सुनाई देने लगे हैं कि कांग्रेस और बीजेपी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। मैं इससे पूरी तरह सहमत हूँ, बल्कि मैं तो बहुत पहले से कहता आ रहा हूँ कि सांप्रदायिकता/जातिवाद सहित सभी बातों में दोनों में कोई अंतर नहीं है, यह महज चुनाव जीतने का औज़ार भर है। दोनों के बीच, और दूसरी सभी छोटी-मोटी पार्टियों के बीच भी, मनमोहन सिंह की नीतियों को तेज़ी से लागू करने की प्रतिस्पर्षा भर है। हितेन्द्र ने एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया, जो लगभग इस प्रकार है: सन 1991 के बाद मनमोहन सिंह द्वारा अपनाई गई खुलेपन की नीति ही उसके बाद की सभी सरकारों की नीतियाँ हैं तो फिर "वैकल्पिक आर्थिक नीतियों के तरफदारों के पास क्या रास्ता है? वे चुनाव परिणामों की चिंता न करते हुए खुलकर विरोध करें, इन्ही नीतियों में आंशिक संशोधनों की वकालत करें, या मैदान छोड़ दें?"
यह एक बहुत महत्वपूर्ण सवाल है क्योंकि इस खुलेपन की नीतियों पर न चलने के कारण सोवियत यूनियन का पतन भी हुआ और चीन भी आज उन्हीं नीतियों पर चल रहा है, शावेज जैसे क्रांतिकारी आते रहे मगर सिर्फ तेल की दौलत पर कब तक कामयाब होते, उनका आकस्मिक निधन भी हो गया। फीडेल कास्त्रो कुछ साल पहले दुनिया भर में हो रह बदलावों के संदर्भ में पूंजीवाद के बदलते स्वरूप और मार्क्सवाद में भी कुछ मूलभूत बदलावों की बात कर चुके हैं। भारत में कुछ समय के लिए कम्यूनिस्ट हल्कों में भी इस पर विचार-विमर्श चला था, जहां अंततः क्लासिकल कम्यूनिस्टों की विजय हुई हालांकि चुनावों में उन्हें भी उसी पुराने ढर्रे पर चलने का खामियाजा भुगतना पड़ा और पहले बंगाल में और फिर अब देश भर में उनका कोई नामलेवा नहीं बचा है।
मैं कुछ बातें प्रस्तावित करना चाहता हूँ:
1) संघर्ष अब पूंजीपति और श्रमिक के बीच नहीं है। बल्कि संगठित श्रमिक और बाकी दूसरों के बीच है। पूंजी ईश्वर की तरह भावनाओं, इच्छाओं, नैतिकता से परे सब कुछ जानने वाली, न्याय करने वाली, सबसे अधिक शक्तिशाली इयत्ता के रूप में सामने है और जिसे हम आज (गलती से) पूंजीपति कहते हैं, वह भी, अधिक से अधिक किसी पुरोहित की तरह, सिर्फ उसका चाकर है। देशों की सरकारी पूंजी और कार्पोर्टेस की पूंजी में कोई अंतर नहीं है, सभी वैज्ञानिक (या ईश्वरीय?) नियम की तरह लाभ कमाने ही निकली हुई हैं। हमारे देश में अभी कार्पोरेशन्स का सम्पूर्ण चलन नहीं हुआ है इसलिए हम आज भी अंबानी, अदानी, टाटा आदि को गालियाँ देते रहते हैं, मगर यह सब भ्रम है। आप देखेंगे कि बहुत जल्दी ये सब बड़े-बड़े कार्पोरेशन्स में बदल जाने वाले हैं, या दूसरे कार्पोरेशन्स द्वारा खरीद लिए जाने वाले हैं। तब ये लोग उन कार्पोरेशन्स के चेयरमैन, डाइरेक्टर वगैरह होंगे, दूसरे कर्मचारियों की तरह एक कर्मचारी, जिनकी नौकरियों की कुछ शर्तें और समझौते होंगे, उसी तरह जैसे किसी सरकारी बाबू की नौकरी के कुछ नियम-कायदे हैं। कुल मिलाकर, आय में काफी अंतर के बावजूद ये सभी कर्मचारी होंगे, चपरासी, बाबू से लेकर चेयरमैन तक। उपरोक्त नियम-क़ानूनों और शर्तों के अनुसार ये सब उन कार्पोरेशन्स या सरकारों के व्यापार के लाभ में हिस्सेदार होंगे।
2) पूंजी ने अपना स्वरूप खो दिया है यानी जैसे पहले किसी पूंजीपति को खत्म करके या किसी मिल पर कब्जा करके, यहाँ तककि किसी देश पर कब्जा करके समझ जाता था कि हमने पूंजीवाद पर विजय पा ली है, तो वैसा अब नहीं होगा। माओवादी भारत पर कब्जा भी कर लें तो भी वे पूंजी की चपेट से नहीं बच सकते। रूस और चीन दो बड़े उदाहरण है मगर छोटे उदाहरण और भी बहुत से हैं, ताज़ा उदाहरण नेपाल है। सरकारीकरण के हामी क्लासिकल विद्वानों से कहना चाहता हूँ कि इस वक़्त चीन की सरकारी पूंजी दुनिया की सबसे क्रूर पूंजी है, जो अफ्रीका और लैटिन अमरीका के और खुद अपने देश के भी सबसे गरीब लोगों के भयंकर शोषण में मुब्तिला है, क्योंकि उस पर नागरिक अधिकारों जैसे कानून भी लागू नहीं होते।
3) जहां पूंजी ने अपना स्वरूप खो दिया है श्रम का स्वरूप बरकरार है मगर उसमें फांक पड़ चुकी है। एक हैं, पुराने जमाने के पुरोहित, शासक और दूसरे व्यवस्था चलाने वाले लोग, जिन्हें उनका देवता उनकी सेवा के बदले में ज़्यादा या कम वेतन या दूसरी सुविधाएं प्रदान करता है और दूसरे हैं वे, जिनका अस्तित्व लगभग प्राकृतिक संपदा जैसा हो गया है। "ह्यूमन रिसोर्स" शब्द ऐसे ही सामने नहीं आया है। भारत के संदर्भ में ये हैं, बेरोजगार (जिनकी संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती चली जाने वाली है), अर्धबेरोजगार या अर्ध-मजदूर, खेतिहर श्रमिक, सीधे प्रकृति पर निर्भर लोग यानी आदिवासी, (हमारे देश के मामले में) हर धर्मों के दलित आदि-आदि, जो संख्या में लगभग 90% हैं। इनमें से कुछ तो ऊपर उठकर व्यवस्था के हिस्से बन जाते हैं और कुछ नीचे वहीं पड़े रहते हैं यानी "ह्यूमन रिसोर्स' ही बने रहते हैं।
4) जहां पश्चिमी यूरोप जैसे विकसित देशों में वेल्फेयर स्टेट के रूप में (उनकी भौगोलिक सीमाओं में) समाजवाद आ चुका है, जो दरअसल पिछले 200/300 सालों में उपनिवेशों के शोषण से प्राप्त दौलत की प्रचुरता के कारण संभव हुआ है (नोट करें, इस बात को मार्क्स नहीं देख सकते थे, हालांकि फिर भी वे सबसे पहले इंग्लैंड में समाजवाद आने की बात कर सके थे।)। बाकी सारी दुनिया में, जो अभी कुल आबादी का 80% हिस्सा है, ये दोनों वर्ग दिखाई देते हैं। इन देशों में एक तरफ इन दोनों वर्गों के बीच संघर्ष है तो दूसरी ओर इन 80% हिस्से का संघर्ष उन 20% अपने बंद इलाकों में समाजवाद प्राप्त कर चुके देशों से भी है (यहाँ दुनिया के मजदूरों एक होंजैसे भावुक नारे का खोखलापन भी उजागर हो जाता है)। पहले संघर्ष में मुद्दा यह है कि संसाधनों पर किसका कब्जा हो, अर्थात 'ह्यूमन रिसोर्स' सहित सभी संसाधनों के इस्तेमाल और उसके लाभ पर किसकी बात सुनी जाए। दूसरे प्रकार के संघर्ष में मुद्दा यह है कि एक तरफ अपने बंद इलाकों में समाजवाद प्राप्त कर चुके ये देश अपनी पूंजी का वैश्वीकरण चाहते हैं, जोकि उनकी मजबूरी ही है (क्योंकि पूंजी पर उनका इख्तियार नहीं रह गया है), तो दूसरी तरफ श्रम के वैश्वीकारण में तरह-तरह के रोड़े अटकाते हैं। हालांकि वे ऐसा बहुत दिनों तक नहीं कर पाएंगे फिर भी हमारे लिए (80% लोगों के लिए) यह संघर्ष का मुख्य मुद्दा होना चाहिए।
और भी बिन्दु हो सकते हैं। मैं सिर्फ आज के समाज और दुनिया की परिस्थिति पर ही सोच पाया हूँ, मुझे नहीं पता कि आखिर बहुसंख्यक जनता यानी 90% भारतीय या 80% वैश्विक आबादी क्या करे। फिलहाल मैं सिर्फ इतना कह सकता हूँ कि 5% संगठित मजदूरों को क्रांति के अग्रदूत मानने का पाखंड छोड़कर वास्तविक सर्वहारा को एकजुट करें यानी वे खुद एकजुट हों, इसके लिए काम करें। उनकी छोटी-छोटी क्रांतियों में शामिल हों और संभव हो तो उनका नेतृत्व करें। छोटी-छोटी क्रांतियों से मेरा अभिप्राय यह है कि स्थानीय स्तर पर लोगों कि मांगों के साथ खड़े हों, न कि सीधे भारत-विजय या विश्व-विजय की बात करें। जैसे, नरेगा में ईमानदारी के साथ पूरा काम हो और मजदूरों को उनकी पूरी मजदूरी दिलवाना एक महत्वपूर्ण काम हो सकता है। देश में दलितों, आदिवासियों और बेरोजगारों के सैकड़ों छोटे-छोटे आंदोलन चल रहे हैं, हम उनमें शामिल हों, जनतंत्र ने हमें औज़ार मुहैया कराए हैं, उनका उपयोग किया जाए। हम वर्तमान परिस्थितियों में केवल कुछ राहत की बात ही कर सकते हैं।

वैश्विक संदर्भ में दुनिया भर के ये 80% लोग अपनी अपनी सरकारों से यह मांग करें कि श्रम के भूमंडलीकरण यानी श्रमिकों की बिना रोकटोक आवाजाही पर विकसित देशों द्वारा लगाए जाने वाले प्रतिबंधों के विरुद्ध आवाज़ उठाए। इसके अलावा यह मांग भी करें कि प्राकृतिक स्रोतों के क्रूर दोहन पर रोक लगे और वास्तव में पहले से मौजूद दौलत के बँटवारे की बात की जाए (वैसे यह दूर की कौड़ी है)। क्योंकि दुनिया के इन 80% लोगों के लिए यूरोप जैसे समाज की व्यवस्था का बोझ वर्तमान वैज्ञानिक उपलब्धियों और सामाजिक/राजनैतिक परिस्थितियों में संभव ही नहीं है। (अंतिम दो पैरों में लिखी बातों पर मैं स्पष्ट नहीं हूँ यानी वर्तमान विश्व और अपने देश में मौजूद परिस्थितियों पर तो स्पष्ट हूँ मगर इन परिस्थितियों को बदलने के तरीकों के बारे में बहुत स्पष्ट नहीं हूँ और चाहता हूँ कि इस बारे में विद्वान चर्चा करें। चर्चा करें मगर बिना किसी पूर्वाग्रह के, पार्टी लाइन या कुछ सिद्धांतों की जड़ व्याख्याओं से ऊपर उठकर।)

हिन्दू त्योहारों पर एक लम्बा नोट

पहली बात तो यह नोट करें कि अधिकांश हिन्दू त्यौहार हर तरह का प्रदूषण जैसे शोर, विषैली गैसें, जहरीले रसायन, धार्मिक, सांस्कृतिक, आदि आदि फैलाते हैं। दूसरे, सभी त्योहार इतने महंगे हैं कि गरीब उनसे अक्सर कोसों दूर रहता है अर्थात ये त्योहार मुख्यतः अमीरों के, दबंगों और उच्च जातियों के लिए हैं और स्वाभाविक ही भेदभाव से परिपूर्ण हैं। तीसरे, त्योहार इतने अधिक हैं और कई तो 10-10 दिन मनाए जाते हैं कि वे समय का दुरुपयोग लगते हैं। इसलिए इन बातों को छोड़कर अपने व्यक्तिगत अनुभव नीचे लिख रहा हूँ। यानी उपरोक्त बुराइयाँ तो मौजूद हैं ही।
1) लगभग 10/12 साल की उम्र में हम लोग रायपुर में सरकारी अफसरों की कालोनी सिविल लाइंस में रहा करते थे। दीवाली पर सबके घरों में कम से कम 100/200 के फटाखे अवश्य आते थे और हमारे यहाँ 10 रुपए के, वह भी बड़ी मुश्किल से। हम तीनों भाई अपने फटाखे जलाते ही नहीं थे और दूसरों के घरों में जाकर उनके जलते फटाखों से पूरा मज़ा ले लेते थे। माँ अच्छी ख़ासी पढ़ी लिखी थीं और उन्हें उज्र नहीं होता था क्योंकि वे कहती थीं कि फटाखों में आग लगाना रुपयों में आग लगाने जैसा ही है। इसमें खतरा भी है। आखिर कई बार हमारे फटाखे अगले साल के लिए बच भी जाते थे। बाद में तो हम खुद ही फटाखे खरीदने से इंकार कर देते थे। स्वाभाविक ही यह त्योहार सिर्फ और सिर्फ अमीरों का त्योहार है। गरीबों के लिए तो यह अंधकार का त्योहार है।
2) बाद में जब मैं ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ता था, हम इंदौर से 80 किलोमीटर दूर एक गाँव में रहे और एक बार गणपति विसर्जन की झांकियाँ देखने एक दोस्त के रिश्तेदार के यहाँ इंदौर आए। जवाहर मार्ग स्थित एक मकान की चौथी मंज़िल की छत पर चढ़कर हमने नीचे सड़क पर गुजरती झाँकियाँ देखीं। अखाड़ों, जुलूस, भीड़-भाड़ और शोर के बीच ट्रकों पर लदी झाँकियाँ रात भर निकलती रहीं और मुझे नींद आती रही। कई बार झगड़े भी होते रहे, बार बार ऊपर लटकते बिजली के तारों को बांस की सहायता से ठेलना पड़ता था। समझ में नहीं आता था कि इस तमाशे को देखने की इतनी दीवानगी का राज़ क्या है। बाद के सालों में यह और बढ़ा और मुझे इस त्योहार से लगभग नफरत सी हो गई।
3) दुर्गा पूजा का भी यही हाल था। दबंग चन्दा लेने आते और कहते आपसे तो 20 रुपए लेंगे (पिताजी भी अच्छे-खासे अफसर थे, मगर थे गरीब ही, गरीब क्यों थे, बताना बेकार है)। कम चन्दा देने पर दबंगों के चेहरे की हिकारत को तब से ही मैं अच्छी तरह पहचान चुका था। बाद में तो कई बार उनकी बदतमीजियां भी झेलनी पड़ी हैं। ये दोनों त्योहार 10 दिन मनाए जाते हैं (समय का इतना अपव्यय!) और इन दस दिनों में मुझ पर उदासी तारी हो जाती थी और अब भी होती है। दस दिन बाद रावण जलाने के लिए लोग दशहरा मैदान जाते थे। पाँच मिनट में खेल खत्म हो जाता था मगर उसके पहले किसी नेता या मिनिस्टर के इंतज़ार में भीड़ में पिसते खड़े रहना मुझे कभी अच्छा नहीं लगा। दूसरे दिन उन लोगों के यहाँ भी सोना देने जाना पड़ता था जिनसे हमारा कोई वास्ता भी नहीं होता था। वहाँ मिठाई और आशीर्वाद मिलते थे, जो अपनी अति और बड़प्पन के दिखावे के कारण मुझे व्यर्थ प्रतीत होते थे। उसके बाद विसर्जन आसपास के किसी ताल या नदी में होता था। इन तालाबों या नदियों की दुर्दशा पर साल भर आँसू बहाने वाले धार्मिक, समझदार नागरिक जिस निर्दयता के साथ नदियों को प्रदूषित करते थे यह देखकर उनके पाखंड पर अचंभित रह जाना पड़ता था। इसके अलावा दरअसल ये त्योहार सारे खेल-कूद और धमाचौकड़ियाँ बंद कर देते थे और इतने विशाल और अराजक होते थे कि व्यक्ति उनमें गुम हो जाता था।
4) बहुत दिनों तक होली का त्योहार मुझे पसंद आता रहा। भांग, गाँजा, शराब और गुलाल की मस्ती में हम भी खूब डूबे-उतराए, उसे जनवादी भी माना क्योंकि कम खर्च में इसका आनंद उठाया जा सकता था और तब इतनी ही समझ थी। मगर फिर लगा कि इसमें जनवाद कहाँ है? जब उन्हीं के साथ होली खेलना है जिनके यहाँ जाकर दीवाली पर फटाखे जलाए, मिठाइयाँ खाईं तो फिर काहे का जनवाद। गरीब अमीर को उस तरह गुलाल नहीं लगा सकता जिससे वर्जना टूटने का एहसास हो, वह बड़े आदर के साथ माथे पर लगाएगा, पैर भी छूएगा। मगर कोई अफसर या अमीर या कोई दबंग किसी चपरासी को या गरीब को गुलाल लगा दे या रंग डाल दे तो उसे अपना अहोभाग्य समझना चाहिए। 25-30 साल पहले भोपाल में (दूसरी जगहों पर भी) मुस्लिम भी दिल खोलकर होली खेलते थे, मगर अब यह लगभग समाप्त हो चुका है। कई बार झगड़े-लड़ाइयाँ भी हो जाती हैं। होली का चन्दा न देने पर आपके घर की दीवारों को कीचड़ में सान दिया जाए तो त्योहार समझकर चुप रहिए। जब गाँव में था तब देखा कि सभी दबंग मर्द अपनी वर्जनाएँ तोड़कर गरीब आदिवासी महिलाओं के साथ ज़ोर ज़बरदस्ती होली खेलते हैं। जब कि उनके घरों में महिलाएं आपस में ही होली खेलती रहती हैं, उन्हें अपनी वर्जना तोड़ने की कोई आज़ादी नहीं होती।  एक बार एक जगह एक चंचल लड़की ने किसी लड़के पर रंग डाल दिया तब लड़कों ने मिलकर उसकी जो गत बनाई उसे मैं भूल नहीं सकता। पहले तो उसके भाई लड़ने आ गए मगर क्या कर सकते थे, होली है। बाद में घर पर लड़की की जमकर धुलाई भी की गई। यह तो है वर्जनाएं टूटने का मिथक।       

The Snows of Kilimanjaro : द स्नोज़ ऑफ़ किलिमंजारो :

'The Snows of Kilimanjaro' एक शानदार मगर 'कठिन' कहानी है। इस लंबी कहानी के तीन अंश प्रस्तुत हैं। पहले मूल अंग्रेज़ी में, बाद में हिन्दी में. इस कहानी को पढ़ते हुए मुझे एडगर एलन पो, जैक लंडन, कवि वाल्ट विटमैन और हिन्दी के भुवनेश्वर याद आते रहे। बहरहाल...

"Kilimanjaro is a snow-covered mountain 19,710 feet high, and is said to be the highest mountain in Africa. Its western summit is called the Masai "Ngaje Ngai," the House of God. Close to the western summit there is the dried and frozen carcass of a leopard. No one has explained what the leopard was seeking at that altitude."
(italics)

"He remembered the good times with them all, and the quarrels. They always picked the finest places to have the quarrels. And why had they always quarrelled when he was feeling best? He had never written any of that because, at first, he never wanted to hurt any one and then it seemed as though there was enough to write without it. But he had always thought that he would write it finally. There was so much to write. He had seen the world change; not just the events; although he had seen many of them and had watched the people, but he had seen the subtler change and he could remember how the people were at different times. He had been in it and he had watched it and it was his duty to write of it; but now he never would."
(italics)

"And then instead of going on to Arusha they turned left, he evidently figured that they had the gas, and looking down he saw a pink sifting cloud, moving over the ground, and in the air, like the first snow in a blizzard, that comes from nowhere, and he knew the locusts were coming up from the South. Then they began to climb and they were going to the East it seemed, and then it darkened and they were in a storm, the rain so thick it seemed like flying through a waterfall, and then they were out and Compie turned his head and grinned and pointed and there, ahead, all he could see, as wide as all the world, great, high, and unbelievably white in the sun, was the square top of Kilimanjaro. And then he knew that there was where he was going."

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"बर्फ से ढँका किलिमंजारो 19710 फुट ऊंचा पहाड़ है, जिसे अफ्रीकाका सबसे ऊंचा पहाड़ माना जाता है। उसका पश्चिमी हिस्सा ईश्वर का घर’ कहलाता है। वहाँ एक तेंदुए की ठंडी अकड़ी हुई लाश पड़ी हुई है। आज तक कोई नहीं बता सका की इतनी ऊंचाई पर वह तेंदुआ क्या करने गया होगा।"  (italics)

"उनके साथ बिताया वह सुनहरा वक़्त उसे याद आया और लड़ाइयाँ। लड़ाइयों के लिए वे हमेशा सबसे खूबसूरत स्थान चुनते थे। और जब वह अच्छे मूड में होता था तभी उनकी लड़ाइयाँ क्यों शुरू हो जाती थीं? इन सब बातों पर उसने कभी कुछ नहीं लिखा, पहले तो इसलिए कि वह किसी का दिल नहीं दुखाना चाहता था और बाद में उसे लगने लगा कि उसके बगैर भी बहुत कुछ लिखा जा सकता है। लेकिन वह हमेशा सोचता था कि कभी न कभी वह सब लिखेगा ज़रूर। कितना कुछ लिखने को था। उसने दुनिया को बदलते देखा था; सिर्फ घटनाएँ नहीं; हालांकि घटनाएँ भी उसने बहुत देखी थीं और लोगों को देखा था, लेकिन उसने सूक्ष्म परिवर्तनों को देखा था और वह याद कर सकता था कि अलग-अलग समय में लोग कितने अलग नज़र आते हैं। वह उनमें रच-बस गया था और सब कुछ बहुत बारीकी से देखता थामहसूस करता था और उसका यह कर्तव्य था कि उस पर वह लिखे; मगर अब वह कभी नहीं लिखेगा।"  (italics)

"अरुषा की तरफ आगे बढ़ने की जगह वे बाएँ मुड़ गए। उसे याद आया कि गैस पर्याप्त है और नीचे नज़र दौड़ाई तो ज़मीन पर और हवा में चहलकदमी करते हुए छितराए, गुलाबी बादल दिखाई दिये, जैसे अचानक आने वाले बर्फीले तूफान का संकेत कर रहे हों और उसे मालूम था कि दक्षिण से टिड्डी दल ऊपर आ रहा है। फिर चढ़ाई शुरू हो गई और लगा कि वे पूर्वी दिशा में आगे बढ़ रहे हैं, और फिर अंधेरा होने लगा और वे तूफान में घिर गए, बारिश इतनी तेज़, जैसे कोई जल-प्रपात बरस रहा हो और फिर वे वहाँ से बाहर निकल आए और कौम्पी ने सिर एक तरफ घुमाकर इशारा किया और एक तीखी मुस्कान उसके चेहरे पर खेल रही थी। उसने उधर देखा तो सामने विशाल, ऊंचा और सफ़ेद, सूरज की रोशनी में देदीप्यमान, अतुलनीय शुभ्रता के साथ चमकता ब्रह्मांड का विस्तार फैला हुआ था, जो किलिमंजारो का वर्गाकार पठार था। और तब उसे पता चला कि जहां वह जाने वाला था, वह यही जगह है।"

हानेके और उनकी फिल्में :

हानेके इस समय मुझे पश्चिमी दुनिया के सबसे प्रतिभाशाली फिल्म निर्देशक लगते हैं। प्रखर बुद्धिजीवी और दृश्य माध्यम को गहराई से समझने वाले और उसका भरपूर इस्तेमाल करने वाले फ़िल्मकार। सन 2012 में वे फिल्म 'अमोर' से अधिक चर्चा में आ गए लेकिन उनकी किसी भी फिल्म को इससे कमतर नहीं कहा जा सकता। अपनी फिल्मों में वे बहुत साधारण विषयों को उठाते हैं मगर उनका मन्तव्य पश्चिमी समाज में व्याप्त असंतोष, बेचैनी और बिखराव की कहानी कहना होता है। एक नज़र में उनकी फिल्में व्यक्तिगत जीवन की सामान्य कहानियाँ लगती हैं मगर वे आपको भीतर तक दहला देती हैं। हिंसा या हत्या उनकी फिल्मों का स्थायी भाव है लेकिन एकाध फिल्म को छोडकर उनकी अन्य फिल्मों में रक्तरंजित और क्रूर गैंग-वार, खूनखराबा, बंदूकें या छुरेबाजी नहीं है, जैसा कि कई प्रसिद्ध पश्चिमी निर्देशकों की, खासकर हॉलीवुड के निर्देशकों की फिल्मों में देखने को मिलता है और न ही कोई हीरोपंती है। अधिकतर फिल्मों में मुख्य पात्र दयनीय मृत्यु के शिकार होते हैं या दर्दनाक मृत्यु का साक्षात्कार करते हैं। 
फिल्म, टीवी और मीडिया पर हानेके के साक्षात्कारों से यू ट्यूब भरा पड़ा है, जिनमें वे समाज, राजनीति और जीवन के सभी पहलुओं पर मीडिया के प्रभाव पर महत्वपूर्ण चर्चा करते हैं। एक इंटरव्यू में वे कहते हैं: “हम मीडिया में दिखाए जा रहे यथार्थ को यथार्थ मानकर चलते हैं मगर वास्तव में वह यथार्थ नहीं होता बल्कि यथार्थ का चित्र या यथार्थ का वीडियो होता है। जब हम टीवी पर आ रहे समाचारों को सच मानने लगते हैं तो दरअसल अपनी समझ को भोथरा कर रहे होते हैं। दरअसल वह यथार्थ नहीं होता बल्कि वास्तविक छवियों के बहाने दिखाया जाने वाला झूठ होता है।” जब हम कहते हैं कि मृत्यु या बलात्कार के समाचार अब हमें पहले की तरह नहीं झँझोड़ते, तो शायद इसका कारण यही होता होगा।
सत्य को कहने में हानेके महज तटस्थ नहीं बल्कि बेहद क्रूर हैं। किसी भी फिल्म में व्यर्थ भावुकता का नामोनिशान नहीं है। कई बार लगता है कि हानेके के पात्रों में संवेदनशीलता का अभाव है। संभव है यह पश्चिमी समाज की आज की परिस्थिति से उपजी उदासीनता का प्रतिबिंब हो। हम एशियाइयों के लिए यह समझना मुश्किल होगा कि आखिर यह उदासीनता, असंतोष और निराशा पश्चिमी समाज में क्योंकर है। कुछ फिल्मों में हानेके यह बताने का प्रयास करते हैं कि वह समाज प्रगति और सुख-संतुष्टि के ऐसे दौर में प्रवेश कर चुका है जहाँ आगे उनके करने के लिए कुछ नहीं है, कोई खास संघर्ष नहीं है, सिवा इसके कि अपनी इस सुरक्षित आरामगाह को दुनिया के भूखे नंगे लोगों से बचाकर रखा जाए, और इसलिए उनके जीवन में व्यर्थता बोध भर गया है। 
हानेके की फिल्में बहुत धीमी गति से चलती हैं लेकिन उनमें एक तरह के पेसिव आतंक का ऐसा सम्मोहन है कि आप उसके एक फ्रेम को भी मिस करना नहीं चाहेंगे, बार-बार रिवाइंड करके देखना चाहेंगे, जैसे कुछ छूट गया हो। कई बार महसूस होता है उनकी फिल्मों के कई फ़लक हैं। आप उनकी फिल्में एक बार देखकर संतुष्ट नहीं होंगे, बार-बार देखना चाहेंगे और हर बार वह आपको नई लगेंगी, हर बार एक दूसरा फ़लक खुलता नज़र आएगा। 
दुर्भाग्य से हानेके की एक भी फिल्म न सिर्फ हिन्दी में डब नहीं की गई है बल्कि किसी भी फिल्म के सबटाइटल हिन्दी में उपलब्ध नहीं हैं। यह एक बड़ा काम है, जिसे फिल्म प्रेमियों को करना चाहिए। मैंने भी अभी उनकी कुछ फिल्में नहीं देखी हैं। हानेके से परिचय करवाने के लिए अरविंद Ar Vind का शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ। शुरू की कुछ फिल्में अशोक गुप्ता Ashok Gupta से मुझे प्राप्त हुईं, उनका भी शुक्रिया। 

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