Saturday, April 4, 2015

मध्य पूर्व की पहेली और पश्चिमी दुनिया

मध्य पूर्व की पहेली और पश्चिमी दुनिया 

मध्य पूर्व आज की सबसे मज़ेदार पहेली है। पश्चिमी दुनिया रोज़ सबेरे उठकर दिन भर इसका हल खोजती है और रात को थककर सो जाती है, अमरीका तो रात को भी नहीं सोता है, दिन में पहेली का हल खोजने का नाटक करता है और रात में जाग-जागकर इस उधेड़बुन में लग जाता है कि नेशनल इंटरेस्ट में इस पहेली को हल करना ठीक होगा या इसे पहेली ही बना रहने दिया जाए।
तेल के कुओं की बदौलत धर्मगुरु सऊदी शुरू से अमरीका के मित्र था। कुएँ ईरान में भी थे और जब तक वहाँ राजा था, पश्चिमी दुनिया और अमरीका दोनों को साधे रहते और दोनों को दुहते रहते। वैसे भी पश्चिम को पोप और राजा के बीच तालमेल का 1000 साल का अनुभव था। शिया-सुन्नी की यह मामूली पहेली थी और इसे आसानी से हल कर लिया गया था। लेकिन जब ईरान में गलत या सही, जनतंत्र जैसा कुछ हुआ, पश्चिम और अमरीका परेशान हो गए। उसे पता चला कि जनता के भेस में यह तो पोप ही पैदा हो गया है और उसे दो पोपों को साधना है जिससे दोनों को दुहते रहा जा सके। लेकिन दो पोप का कोई precedence इतिहास में नहीं था कि गाइडेंस लिया जा सकेपहेली अब कठिन हो गई थी।
पश्चिमी दुनिया और अमरीका के नेशनल इन्टरेस्ट में अब तीन विकल्प सामने थे: एक-सऊदी पोप के वर्चस्व में दोनों पोपों की दोस्ती करा दी जाए। दो-एक पोप का खात्मा कर दिया जाए। तीन-दोनों पोपों को अलग-अलग क्षेत्रों में अपना काम करने दिया जाए और दोनों को अलग-अलग साधा जाए।
पहला विकल्प तो सिरे से खारिज हो गया। शिया सुन्नी वाली पहेली जितनी आसान लगती थी, उतनी आसान नहीं थी। क्योंकि इस्लाम एक था, लिहाजा पोप भी एक ही हो सकता था। फिर ईरान में जनतंत्र था यानी जनता ही पोप बन गई थी, यह अमरीका के नेशनल इन्टरेस्ट के लिए सबसे बुरी बात थी। सबसे बड़ी बात, सऊदी पोप से उनकी हिमालय से ऊंची और समुद्र से गहरी दोस्ती थी। सो उनके सामने दूसरे विकल्प पर काम करने के अलावा कोई चारा नहीं था-यानी एक पोप का खात्मा कर दिया जाए।
दूसरे विकल्प के अनुसार एक पोप का खात्मा किया जाना था और स्वाभाविक ही ईरान का करना था क्योंकि वह पश्चिम के और अमरीका के यार को हटाकर जनतंत्र बना था। लिहाजा पश्चिम और अमरीका ईरान के दुश्मन हो गए। सबसे बड़ी दिक्कत यह थी कि ईरान एक जनतंत्र थाइतिहास मनुष्य के साथ ऐसे-ऐसे मज़ाक करता रहा है कि अक्सर मनुष्य पागल, मूर्ख नज़र आता है और कई बार इसी पागलपन में वह भेस बदलकर जोकर की तरह अजीबोगरीब हरकतें करने लगता है। तो अक्सर लोग जनतंत्र के एक्स्पोर्टर अमरीका के सऊदी प्रेम और ईरान विरोध को समझ नहीं पाते, उसे पागल या जोकर समझते हैं। लेकिन ईरान परस्त खुश न हों, ईरान खुद भी पिछले चौदह सौ साल से क्रमशः मूर्ख, पागल होते-होते इस बीच जोकर बन चुका है। इस्लाम से पहले ईरान दुनिया के सबसे शक्तिशाली साम्राज्यों में से एक था। हिंदुत्ववादी भारत को रोते हैं लेकिन इस्लाम के आने के बाद ईरान की जितनी छीछलेदर हुई है, उतनी दुनिया में सिर्फ मिस्र की हुई है। उसे पहले रोमन, फिर अरब, फिर तुर्क, फिर मंगोल और पता नहीं किन-किन अज्ञात  और अल्पज्ञात जातियों की मार झेलनी पड़ी और अब ईरान में वास्तविक ईरानी कितने हैं, कहना मुश्किल है। लेकिन जोकर कभी-कभी तुरुप का इक्का भी हो जाता है और इसी इक्के ने यानी ईरानी जनतंत्र ने उसे अपने स्वर्णिम इतिहास की याद दिला दी, वैसे ही जैसे भारतीय हिन्दू अपना स्वर्णिम इतिहास आर्यों में खोज रहे हैं। तो अब उनके लिए सारे पुराने आक्रमणकारी दुश्मन हैं। अरबों ने तो उनका सबसे बड़ा कबाड़ा किया था, लिहाजा वे सबसे बड़े दुश्मन बन गए हैं। अब पश्चिमी दुनिया और अमरीका के दूसरे विकल्प की ओर लौटते हैं और देखते हैं कि यह कितना कठिन है, लगभग असंभव सा। सऊदी पश्चिम के दोस्त हैं लेकिन उसके पिल्ले, यानी अल कायदा, तालिबान, बोको हराम और अब आईएसआईएस उसके दुश्मन। ये पिल्ले ईरान के भी दुश्मन हैं लेकिन ईरान पश्चिम का दुश्मन है। असद बुरा है लेकिन वह आईएसआईएस का दुश्मन है मगर वह ईरान का दोस्त है। इज़राइल सबका दुश्मन है लेकिन ईरान का ज़्यादा, सऊदी का कम। लेकिन आईएसआईएस इज़राइल का ईरान से बड़ा दुश्मन है। उनके लिए वह बिना स्वस्तिक आर्मबैंड के, पगड़ीधारी नाजी ही हैं। कुछ पश्चिमी बुद्धिजीवी मानते हैं कि वास्तव में ईरान के विरुद्ध आईएसआईएस की सहायता की जानी चाहिए। कहने का अर्थ यह कि न तो ईरान को पोप के पद से हटाया जा सकता है न ही उसका खात्मा किया जा सकता है। इस तरह अमरीकी और पश्चिमी दुनिया ईरान से सुलह करने के मूड में आ गई है और इसी में पहेली के तीसरे हल का रहस्य छिपा हुआ है।
और तीसरा विकल्प पहेली का हल नहीं, सिर्फ उसे लंबे समय तक जारी रखने की लंबी चाल है, जिससे लोग भ्रम में बने रहें और पहेली हल करने का मज़ा लेते रहें। दरअसल इसका हल समय के पास है। उसी इतिहास के पास, जिसने हमेशा मनुष्य को मूर्ख, पागल और जोकर बनाया है। यानी जब तक मध्य पूर्व में तेल है, यह पहेली जारी रहेगी और उसके बाद स्वतः हल हो जाएगी। तब तक पश्चिमी दुनिया और अमरीका धार्मिक मुसलमानों के साथ मिलकर इसे इतना कठिन बना देंगे कि ब्रेड और बम में, कैरे और कलाश्निकोव में और राहत कैंप और फौजी अड्डे में फर्क नज़र नहीं आएगा।
सवाल यह है कि उसके नतीजे में मध्य पूर्व का नक्शा क्या होगा। 100 साल बाद की भविष्यवाणी कोई मूर्ख, पागल या जोकर ही करेगा मगर हम ये सब नहीं हैं, इसका हमें कोई गुमान नहीं है। इसलिए ट्राई मारते हैं। तो मेरे मुताबिक, ईरान और टर्की समझ जाएँगे कि पिछले 1400 साल कुल मिलाकर बददुओं की गुलामी की शताब्दियाँ ही थी और वे धर्म के आतंक से उबर लेंगे। अगर ऐसा हो गया तो फिर विश्व राजनीति में ये दोनों देश अपनी पुरानी गरिमा पा लेंगे। बददुओं की हालत बहुत पतली हो सकती है। उनका कुछ बचा रहेगा तो वह मिस्र और पाकिस्तान जैसे देशों में बचा रहेगा अन्यथा वे 1400 साल पहले वाली हालत में चले जाएँगे, जहाँ नखलिस्तान की तरह एकाध दुबई, एकाध कुवैत बचे रहेंगे। भारत दूर है, मगर पाकिस्तान और भारत की हिंदुत्ववादी ताक़तें मिलकर उसे इस पहेली के अलावा कई नई पहेलियों में भी उलझाए रखने में कामयाब होंगे

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Friday, February 20, 2015

हिन्दी भाषा:कल, आज और कल

हिन्दी भाषा बहुत नई है और अभी निर्माण की प्रक्रिया से गुज़र रही है। अकादमिक शिक्षक, हिन्दी के लेखक, विद्वान कुछ भी कहें, वह सौ साल या ज़्यादा से ज़्यादा 125 साल से अधिक पुरानी नहीं है। उससे पहले जिसे हिन्दी/उर्दू/रेख्ता/हिंदवी आदि कहा जाता था वह सिर्फ पढ़े-लिखे शहरी मुट्ठीभर लोगों के बीच बोली जाने वाली भाषा थी। बाकी बहुसंख्या अवधि, ब्रज, मैथिली, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, मारवाड़ी, बुंदेलखंडी, मालवी, पहाड़ी, हरियाणवी आदि भाषाएँ बोलती थी। आपको याद होगा, ये सभी बोलियाँ उस समय भाषाएँ थीं। उसी समय से (यानी लगभग 200 साल पहले से) इस हिन्दी/उर्दू...के निर्माण की प्रक्रिया थोड़ा करीने से शुरू हुई होगी और इन भाषाओं के ही नहीं, मराठी, बांग्ला, गुजराती, पंजाबी आदि और बाद में अंग्रेज़ी के शब्द उसमें स्थान पाते गए होंगेहिन्दी भाषा के निर्माण की यह प्रक्रिया उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में तेज़ हुई होगी, जब अंग्रेजों ने भी (कलकत्ते में) इन दोनों भाषाओं को सरकारी भाषा के रूप में मान्यता दी और शहरी हिन्दी/उर्दू विद्वानों और साहित्यकारों ने इसे हाथोंहाथ लिया। इस तरह कुल मिलाकर स्वतन्त्रता के बाद यह भाषा (या दोनों भाषाएँ) देश की राजभाषा बनने के लिए कमर कस चुकी थी (जैसा कि बाद में हुआ भी)। लेकिन उपरोक्त सभी भाषाओं और हिन्दी के बीच अन्तःक्रियाएँ जारी रही (यानी इंटरएक्शन जारी रहा), जो आपसी संपर्क बढ़ने, नई ग्लोबल शब्दावलियों के प्रवेश और शहरीकरण तेज़ होने के साथ और तीव्र हुई थीं (या हुआ था)। यह प्रक्रिया और तेज़ हो रही है और इसकी रफ्तार भी उत्तरोत्तर बढ़ रही है (यानी रफ्तार बढ़ने की दर यानी एक्सिलरेशन भी तेज़ हुआ है) और विदेशी संपर्क के चलते और शहरीकरण में आने वाली तेज़ी के अनुपात में भविष्य में यह रफ्तार और तेज़ होगी। मुझे लगता है, यह अवश्यंभावी (इनएविटेबल) है। चाहने से इसे कोई रोक नहीं सकता। आज से पचास या सौ साल बाद हिन्दी का क्या रूप होगा, कहा नहीं जा सकता। अखबारों में लिखी जाने वाली हिन्दी हम (मैं भी इसमें शामिल हूँ) पसंद नहीं करते तो न करें, उसी मिश्रित भाषा में यानी जिसे हिंगलिश कहा जाता है, आज सभी अखबार पढ़े जाते हैं। हिन्दी अखबार पढ़ने वाले किसी भोजपुरी या मारवाड़ी भाषी सामान्य पाठक को उसमें कुछ भी गलत नहीं लगता, शायद किसी अंग्रेज़ी (या मराठी या हरियाणवी) शब्द पर ठिठककर वह एक बार मुस्कुराता होगा और बाद में उस शब्द का प्रयोग करने की खुद कोशिश करता होगा और इस तरह भाषा निर्माण की प्रक्रिया में अपना (सही-गलत) योगदान देता होगा। हम यह नहीं कह सकते कि वह गँवार है, हिन्दी से उसे प्रेम नहीं है या हम ही सही हिन्दी लिख-पढ़ रहे हैं, उसकी पवित्रता को बचाए हुए हैं और वह हिन्दी की हत्या करने के ग्लोबल षड़यंत्र में, अनजाने ही सही, शामिल हो गया है। विद्वानों और हिन्दी लेखकों को चाहिए कि अपने आपको हिन्दी की पवित्रता को बचाए रखने के उत्तरदायित्व से मुक्त कर लें। कोई भी भाषा उसे बोलने वाले बहुसंख्यक बनाते हैं न कि लेखक, प्रोफेसर और विद्वान। और जिस भाषा को मरना है वह मरकर रहती है, किसी को कोसने से कोई लाभ नहीं होता। इस विवेचन से ही पता चलता है कि न जाने कितनी भाषाओं को खुद हिन्दी नुकसान पहुँचाती रही है, अब भी पहुँचा रही है और कुछ समय बाद ये भाषाएँ निश्चय ही समाप्त हो जाएँगी। अभी लिखी-बोली जाने वाली हिन्दी को समाप्त होना होगा तो वह होकर रहेगी लेकिन सौ साल बाद लिखी-बोली जाने वाली हिन्दी हिन्दी न होने के बावजूद हिन्दी ही कहलाती रहेगी, हिंगलिश नहीं। इसलिए छड्ड़ यार, ज़्यादा लोड मत लो और डोकरा हस खाली-पीली हिन्दीकेर बाज़ार के सुकून का बैंड न बजावत जात जा!  

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