जातिवादी घृणा पर दुनियाभर में कई बेहद
अच्छी और लोकप्रिय फिल्में बनी हैं और लेकिन अधिकांश बहुत स्पष्ट ‘संदेश’ देती हुई फिल्में हैं और उनमें भावुक निष्कर्ष हैं। हानेके की
यह खासियत है कि वे अपनी फिल्मों में भावुकता और निष्कर्षों से कोसों दूर रहते
हैं। कई बार मैंने महसूस किया है कि जैसे ही आप किसी निष्कर्ष की उम्मीद करने लगते
हैं, वे अप्रत्याशित रूप से
आपको वहाँ से हटाकर कहीं और ले जाते हैं और आप देखते हैं कि जो आप सोच रहे थे, उसका ठीक विपरीत घटित हो गया। इस तरह वे आपके
सुकून और शांति को बार-बार बिखेर देते हैं, झंझोड़ते रहते हैं और आप बार-बार चकित रह जाते हैं, विचलित होते हैं। वे मानते हैं कि यथार्थ की खोज में
कोई सहज, सरल उत्तर
नहीं है।
उनकी
फिल्मों का एक-एक फ्रेम एक पहेली
की तरह उलझनभरा होता
है, आपको सोचने के लिए मजबूर करता है। ‘कोड अननोन’ में तो कोड भी अननोन है।
फिल्म में टाइटल्स के साथ दिखाई गई छोटी सी क्लिप ही इसकी गवाही दे देता है। एक (गूंगी)
बच्ची स्टेज पर मूक-अभिनय कर रही है, इशारों में कुछ कह रही है और विभिन्न जातियों के (गूंगे) बच्चे दर्शक
हैं, जो
एक-एक कर उसकी बात समझने का प्रयास करते हैं मगर कोई इस पहेली को सुलझा नहीं पाता
कि वह क्या कह रही है। आप सोचते रह जाते
हैं कि आखिर हानेके इस दृश्य में क्या कहना चाहते हैं कि पर्दे पर आपको फिल्म के
नाम के साथ यह लिखा दिखाई देता है ‘विभिन्न जीवन-यात्राओं की अधूरी कहानियाँ’ और जिसके लेखक और निर्देशक हानेके महोदय
हैं! इतना आप ज़रूर समझ जाते हैं कि फिल्म जातीय (एथनिक) समस्याओं को सामने लेकर
आएगी।
वास्तव
में उपरोक्त दृश्य पहला दृश्य नहीं बल्कि किसी ग्रंथ के पहले पृष्ठ पर, कथा की शुरुआत से पहले दिया जाने वाला
कोटेशन मात्र है। पहला दृश्य दरअसल उसके बाद है, जिसमें एक साथ लगभग सभी मुख्य पात्र शामिल होते हैं और फिर बिखर जाते
हैं और पूरी फिल्म में उनके अलग-अलग जीवनों के अलग-अलग स्वतंत्र दृश्य हैं, जिनमें दूसरे पात्र भी कभी-कभी शामिल
होते दिखाई देते हैं और कभी नहीं भी होते। फिल्म में कोई बंधी-बंधाई कहानी नहीं है
और जैसा कि पहले कहा गया, पूरी फिल्म में विभिन्न जीवनों की अधूरी कहानियाँ भर हैं। कई अलग-अलग
कहानियों और सब कहानियों की एक मिलीजुली कहानी वाली कई फिल्में बनी हैं, जैसे पल्प फिक्शन या बेबल, लेकिन उनमें सभी कहानियाँ किसी न किसी
तरह पूर्ण होती हैं और फिल्में भी इन कहानियों में गुथी सुगठित फिल्में हैं। कोड
अननोन में न तो ये कहानियाँ पूर्ण हैं और न ही फिल्म। बिल्कुल अंत में भी एक क्लिप
है, जिसमें एक
दूसरी (गूंगी) लड़की मूक अभिनय द्वारा कुछ बताती है, जिसका अर्थ दर्शक अपने-अपने तरीके से निकालते रह सकते हैं।
पहले
दृश्य में नायिका का परेशान देवर उसे सड़क पर मिलता है, जो घर का कोड बदल जाने के कारण घर नहीं
जा पाया है। नायिका उसे कोड बताती है, घर की चाभी देती है, कुछ खाने को देती है और व्यस्त होने के कारण अपने काम पर जाने लगती है।
खाने के बाद देवर खाली मुड़ा-तुड़ा रैपर एक भिखारिन के हाथ में फेंक देता है। एक
अफ्रीकी फ्रेंच लड़का उसे आड़े हाथों लेता है और भिखारिन से माफी मांगने के लिए कहता
है। आपस में हाथापाई होती है, भीड़ इकट्ठा हो जाती है, नायिका भी शोर सुनकर आ जाती है। पुलिस भी हस्तक्षेप करती है और वह
भिखारिन से उसका आई डी मांगती है, जो उसके पास नहीं होता। आसपास के दुकानदार उस भिखारिन से पहले ही
परेशान हैं और पुलिस उसे उसके देश, रोमानिया भेज देती है और अफ्रीकी लड़के को, जो कानूनी रूप से फ्रेंच नागरिक बन चुका
है, थाने ले
जाती है।
कोड
अननोन तो है मगर जिस तरह दर्शक फिल्म का कोड खोजने में लगे हैं, उसी तरह सभी पात्र जीवन जीने के
अपने-अपने कोड खोजने में लगे हैं, जो अलग-अलग पात्रों के लिए एक साथ या अलग-अलग आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और जातीय मामलों में निहित हैं। सभी पात्र एक साथ ही असुरक्षा और दृढ़निश्चय के बीच झूल रहे हैं।
नायिका का पति टीवी फोटोग्राफर/रिपोर्टर है और कोसोवों में चल रहे
युद्ध और हताहत लोगों की तस्वीरें लेने और वीडियो बनाने गया हुआ है और बाद में
वापस आता है। इन तस्वीरों को टीवी पर दिखाने पर होने वाले मतभेद की चर्चा फिल्म
में है। वह खुद रोज़ कुछ न कुछ लिखना चाहता है मगर लिख नहीं पाता। भिखारिन की
रोमानिया की कठिन ज़िंदगी का चित्रण है, जिसमें यह पता चलता है कि वह और उसका परिवार अपने तंग जीवन में भी
क्रमशः आर्थिक तरक्की कर रहा है। इसके बावजूद उसे पैरिस की सड़कों पर भीख मांगना
अनुचित नहीं लगता। एकमात्र भावुक और किसी नतीजे तक पहुँचाने वाला दृश्य वह है, जहाँ यह भिखारिन कहती है कि अपने गाँव (सेर्तेजी, चेर्तेजी) में उसने एक गंदे जिप्सी भिखारी
को भीख देने के बाद घर आकर साबुन से हाथ धोए थे और यहाँ पैरिस में एक बार एक
व्यक्ति उसके हाथ में नोट देते-देते यह सोचकर कि कोई बीमारी न लग जाए, नोट उस पर फेंककर तेज़ी के साथ आगे बढ़
जाता है। (पता नहीं यह दृश्य हानेके ने क्यों रखा है, शायद एक बार दर्शकों को अलग तरह से आश्चर्यचकित
करने के लिए?) अफ्रीकी
(मालियन) परिवार है, जो अपने
साथ हो रहे जातीय ज़ुल्मों से त्रस्त है मगर वापस जाने के लिए तैयार नहीं है। उनका
लड़का बहुत भला लड़का है और कभी कोई गलत काम नहीं करता। माँ कहती है, उसके साथ ज़ुल्म करने वालों को अल्लाह सबक
क्यों नहीं सिखाता? उनका
ड्राईवर पिता अपनी पत्नी को समझता है कि हम गोरों के देश में रह रहे हैं, जिनके तौर-तरीके हमसे बहुत अलग हैं और
हमें यह बात समझनी चाहिए। बाद में वह अपने देश जाता है और वहाँ के लोग उसकी शानदार
कार को देखकर आश्चर्यचकित रह जाते हैं।
प्रमुख पात्र, ऐन (जूलिएट बीनश) फिल्मों में संघर्ष कर रही है और
सामान्य मध्यवर्ग का जीवन जी रही है। वह एक साथ कई फिल्मों में काम करती नज़र आती
है, जो उसके और सभी शहरी
जीवनों के प्रतीक की तरह नज़र आता है। नायिका के अभिनेत्री होने और शूटिंग करते
रहने का हानेके ने बड़ी चतुराई के साथ इस्तेमाल किया है। इन दृश्यों की सहायता से
वे बार बार दर्शकों को दृश्य में ले जाते हैं। एक दृश्य में नायिका एक कमरे में
बंद है और कोई गुंडा ज़हरीली गैस कमरे में छोड़ रहा है। दर्शक इसे फिल्म का हिस्सा
समझकर किसी कहानी की उम्मीद कर रहा होता है कि पता चलता है, किसी दृश्य की शूटिंग हो रही है। एक पत्र के मिलने
पर वह असुरक्षित महसूस करती है और अपने पति से उसकी व्यस्तता की शिकायत करती है।
अंतिम दृश्य में किसी त्रिकोण का आभास होते-होते वास्तविकता ज़ाहिर हो जाती है कि
यह फिल्म है।
मीडिया का चित्रण हानेके की विशेषता है।
उनमें यथार्थ और फिल्म, जीवन और
काल्पनिकता, दर्शक
और पर्दे के बीच सहज आवागमन होता दिखाई देता है। वे रिमोट से टीवी समाचारों को
रिवाईंड करके खबरों का रुख ही बदल देते हैं (फनी गेम्स) और दर्शक हैरान रह जाते
हैं कि दरअसल सही खबर क्या है।
कई बार मैं सोचता हूँ कि हत्या और बलात्कार
पर आजकल लोग उतने उद्वेलित क्यों नहीं होते। मुझे इसका कारण यह नज़र आता है कि लोग
उन्हें टीवी पर देखते हैं। टैरेंटिनो की फिल्मों की हत्या और आईएसआईएस द्वारा गला
काटने के वीडियो के बीच अंतर समाप्त हो चुका है। अवचेतन में वे आईएसआईएस की हत्या
को भी फिल्म समझने लगे हैं। लेकिन हानेके आपको हर वक़्त चैतन्य रखते हैं। हत्या की
घटना वे नहीं फिल्माते बल्कि उसे देखने वालों को फिल्माते हैं और उन दर्शकों में
खुद फिल्म का दर्शक भी शामिल होता है। इस तरह आप हत्या की फिल्म नहीं देख रहे होते
बल्कि हत्या देख रहे होते हैं, जो पर्दे पर नहीं दिखाई जा रही है। हत्या की घटना को आप भूल
नहीं सकते, उसे
देखकर स्थायी आतंक उपजता है लेकिन उसका वीडियो (या फिल्म) देखकर कुछ समय के लिए
दया, क्रोध, जुगुप्सा या आतंक भी पैदा होते हैं मगर इनमें से
कुछ भी मस्तिष्क पर उत्कीर्ण नहीं होते। हानेके अपनी फिल्मों से दर्शकों के मन में
यही दीर्घकालिक आतंक पैदा करते हैं।
यह फिल्म एक बार देखकर कोई नहीं समझ सकता बल्कि
फिल्म में समझने लायक कुछ है भी नहीं। अनुभव करने की बात है और जितनी बार आप फिल्म
देखेंगे आपको कुछ न कुछ अतिरिक्त देखने को मिलेगा, अलग-अलग स्थानों पर पहले से अलग अनुभव होगा। हर बार आपको लगेगा
कि कुछ छूट गया, फिर देखा
जाए। जिसके पास इतना समय और धैर्य है, वही इस फिल्म को देखें। लेकिन एक बार देखना शुरू करने के बाद आप
इसके जादू से मुक्त नहीं हो पाएँगे।
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