Friday, February 20, 2015

हिन्दी भाषा:कल, आज और कल

हिन्दी भाषा बहुत नई है और अभी निर्माण की प्रक्रिया से गुज़र रही है। अकादमिक शिक्षक, हिन्दी के लेखक, विद्वान कुछ भी कहें, वह सौ साल या ज़्यादा से ज़्यादा 125 साल से अधिक पुरानी नहीं है। उससे पहले जिसे हिन्दी/उर्दू/रेख्ता/हिंदवी आदि कहा जाता था वह सिर्फ पढ़े-लिखे शहरी मुट्ठीभर लोगों के बीच बोली जाने वाली भाषा थी। बाकी बहुसंख्या अवधि, ब्रज, मैथिली, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, मारवाड़ी, बुंदेलखंडी, मालवी, पहाड़ी, हरियाणवी आदि भाषाएँ बोलती थी। आपको याद होगा, ये सभी बोलियाँ उस समय भाषाएँ थीं। उसी समय से (यानी लगभग 200 साल पहले से) इस हिन्दी/उर्दू...के निर्माण की प्रक्रिया थोड़ा करीने से शुरू हुई होगी और इन भाषाओं के ही नहीं, मराठी, बांग्ला, गुजराती, पंजाबी आदि और बाद में अंग्रेज़ी के शब्द उसमें स्थान पाते गए होंगेहिन्दी भाषा के निर्माण की यह प्रक्रिया उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में तेज़ हुई होगी, जब अंग्रेजों ने भी (कलकत्ते में) इन दोनों भाषाओं को सरकारी भाषा के रूप में मान्यता दी और शहरी हिन्दी/उर्दू विद्वानों और साहित्यकारों ने इसे हाथोंहाथ लिया। इस तरह कुल मिलाकर स्वतन्त्रता के बाद यह भाषा (या दोनों भाषाएँ) देश की राजभाषा बनने के लिए कमर कस चुकी थी (जैसा कि बाद में हुआ भी)। लेकिन उपरोक्त सभी भाषाओं और हिन्दी के बीच अन्तःक्रियाएँ जारी रही (यानी इंटरएक्शन जारी रहा), जो आपसी संपर्क बढ़ने, नई ग्लोबल शब्दावलियों के प्रवेश और शहरीकरण तेज़ होने के साथ और तीव्र हुई थीं (या हुआ था)। यह प्रक्रिया और तेज़ हो रही है और इसकी रफ्तार भी उत्तरोत्तर बढ़ रही है (यानी रफ्तार बढ़ने की दर यानी एक्सिलरेशन भी तेज़ हुआ है) और विदेशी संपर्क के चलते और शहरीकरण में आने वाली तेज़ी के अनुपात में भविष्य में यह रफ्तार और तेज़ होगी। मुझे लगता है, यह अवश्यंभावी (इनएविटेबल) है। चाहने से इसे कोई रोक नहीं सकता। आज से पचास या सौ साल बाद हिन्दी का क्या रूप होगा, कहा नहीं जा सकता। अखबारों में लिखी जाने वाली हिन्दी हम (मैं भी इसमें शामिल हूँ) पसंद नहीं करते तो न करें, उसी मिश्रित भाषा में यानी जिसे हिंगलिश कहा जाता है, आज सभी अखबार पढ़े जाते हैं। हिन्दी अखबार पढ़ने वाले किसी भोजपुरी या मारवाड़ी भाषी सामान्य पाठक को उसमें कुछ भी गलत नहीं लगता, शायद किसी अंग्रेज़ी (या मराठी या हरियाणवी) शब्द पर ठिठककर वह एक बार मुस्कुराता होगा और बाद में उस शब्द का प्रयोग करने की खुद कोशिश करता होगा और इस तरह भाषा निर्माण की प्रक्रिया में अपना (सही-गलत) योगदान देता होगा। हम यह नहीं कह सकते कि वह गँवार है, हिन्दी से उसे प्रेम नहीं है या हम ही सही हिन्दी लिख-पढ़ रहे हैं, उसकी पवित्रता को बचाए हुए हैं और वह हिन्दी की हत्या करने के ग्लोबल षड़यंत्र में, अनजाने ही सही, शामिल हो गया है। विद्वानों और हिन्दी लेखकों को चाहिए कि अपने आपको हिन्दी की पवित्रता को बचाए रखने के उत्तरदायित्व से मुक्त कर लें। कोई भी भाषा उसे बोलने वाले बहुसंख्यक बनाते हैं न कि लेखक, प्रोफेसर और विद्वान। और जिस भाषा को मरना है वह मरकर रहती है, किसी को कोसने से कोई लाभ नहीं होता। इस विवेचन से ही पता चलता है कि न जाने कितनी भाषाओं को खुद हिन्दी नुकसान पहुँचाती रही है, अब भी पहुँचा रही है और कुछ समय बाद ये भाषाएँ निश्चय ही समाप्त हो जाएँगी। अभी लिखी-बोली जाने वाली हिन्दी को समाप्त होना होगा तो वह होकर रहेगी लेकिन सौ साल बाद लिखी-बोली जाने वाली हिन्दी हिन्दी न होने के बावजूद हिन्दी ही कहलाती रहेगी, हिंगलिश नहीं। इसलिए छड्ड़ यार, ज़्यादा लोड मत लो और डोकरा हस खाली-पीली हिन्दीकेर बाज़ार के सुकून का बैंड न बजावत जात जा!  

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Tuesday, February 17, 2015

हानेके और उनकी फिल्में-(4) अमोर

      हानेके की 'अमोर' एक उत्कृष्ट फिल्म है और इसे 2012 का ऑस्कर पुरस्कार (विदेशी भाषा) भी मिल चुका है। यह फिल्म भी हानेके की टिपिकल फिल्म है और यह भी आपको पूरे समय विस्मयपूर्ण आतंक में जकड़कर रखेगी। आप चाहेंगे कि आपके मित्र भी उसे देखें मगर सिफारिश करते हुए उन्हें आगाह अवश्य करेंगे कि भाई, आप उसमें किसी मनोरंजन की अपेक्षा मत कीजिएगा और कमजोर दिल वाले हों तो न ही देखें तो अच्छा। वह पूछेगा, हॉरर मूवी है क्या, तो आप कुछ कह नहीं पाएंगे या शायद कह ही दें कि हाँ, है। फिल्म में रक्त की एक बूंद नहीं है, गोला बारूद, भयानक आकृतियाँ नहीं हैं, यहाँ तक कि हॉरर फिल्मों वाला संगीत भी नहीं है, इसके बावजूद पूरी फिल्म में आपको दिल की धड़कनें रुकती हुई महसूस होती हैं। फिल्म की समाप्ति पर आप काफी देर कुर्सी से उठ नहीं पाएंगे और फिल्म देखने की वह खुशी, जो आम तौर पर प्राप्त होती है, या सुकून आपको प्राप्त नहीं होंगे। थिएटर से बाहर निकलकर आप शायद फिल्म के विषय में बात तक करना पसंद न करें।
      फिल्म की शुरुआत आम फिल्मों की तरह होती है और कुछ पुलिस वाले और फायर ब्रिगेड के अधिकारी एक फ्लॅट का दरवाजा तोड़कर अंदर दाखिल होते हैं और फ्लॅट की तलाशी लेते हैं। एक कमरे में उन्हें एक बहुत बूढ़ी औरत की लाश पलंग पर पड़ी दिखाई देती है जिसका शरीर सफ़ेद पड़ गया है और उस पर फूल बिखरे हुए हैं। सारे फ्लॅट में लाश की दुर्गंध फैली हुई है और लोगों ने अपने मुंह ढांक रखे हैं। फ़्लैशबैक। दृश्य बदलता है और एक थिएटर में संगीत का कार्यक्रम चल रहा है। तालियों की गड़गड़ाहट के पश्चात हम एक बूढ़े दंपति के साथ वापस फ्लॅट में लौटते हैं जहां दरवाजे का ताला तोड़ने की कोशिश की गई है। दोनों सहम जाते हैं और बूढ़ा औरत को ढाढ़स बंधाने की कोशिश कर रहा है। रात। औरत को नींद नहीं आ रही है और वह सोच रही है कि कौन आया होगा। आया तो ज़रूर है मगर मौत को ताला या दरवाजा तोड़कर आने की ज़रूरत नहीं है। 
      सबेरे नाश्ता करते वक़्त अचानक औरत गुमसुम हो जाती है। उस पर डिमेन्शिया का हमला हुआ है और कुछ समय के लिए वह चेतनाशून्य हो जाती है। बूढ़ा पहले तो उसे होश में लाने की कोशिश करता है फिर पड़ोस में किसी की सहायता मांगने जाने लगता है। मगर इसी बीच औरत को होश आ जाता है और फिर शुरू होता है मौत का क्रूर खेल। जैसे कोई बिल्ली अपने शिकार को गड़प करने से पहले उसके साथ खेल रही हो। मगर यहाँ दर्शक भी जैसे लहूलुहान हो रहा है। कुछ स्थिर चित्रों के लंबे-लंबे दृश्यों की सहायता से निर्देशक दर्शक को फ्लॅट के भीतर खींच लाया है और इस सारे खेल में उसे भी एक अदृश्य पात्र की तरह शामिल होना है। औरत का दाहिना हाथ लकवाग्रस्त हो गया है और अब पूरी फिल्म में उसे तिल-तिलकर मरना है। बीच-बीच में डॉक्टर है, उनकी बेटी और दामाद हैं, नर्सें हैं, एकाध पड़ोसी है मगर कुल मिलाकर उस धुंधले फ्लॅट में वे दोनों मौत से अकेले जूझ रहे हैं। उनका संघर्ष व्यर्थ है और उसमें कोई भागीदार भी नहीं है। दूसरों की भागीदारी की व्यर्थता तो वैसे भी स्पष्ट है और खुद औरत भी किसी की सहायता नहीं लेना चाहती, बेटी की नहींनर्सों की नहीं और आखिर में खुद अपने प्रेमी, बूढ़े पति की भी नहीं। कुछ महीनों की इस यंत्रणा को दो घंटे की फिल्म में साकार कर देना और उस यातना में दर्शक को इस कदर ग्रसित कर लेना वाकई एक बेहद प्रतिभाशाली निर्देशक का काम ही हो सकता है। यह फिल्म इतनी धीमी है कि शायद बहुत से दर्शक बोर भी हो सकते हैं मगर यदि वे बोर नहीं हो रहे हैं तो उन्हें उस यंत्रणा में से गुजरने के लिए तैयार रहना होगा जो उस पूरे फ्लॅट में पसरी हुई है। 
      शुरू में जब हम पुलिस और फायर ब्रिगेड को दरवाजा तोड़कर भीतर दाखिल होता हुआ देखते हैं तो हम किसी हिंसा और खून खराबे की अपेक्षा करने लगते हैं मगर पूरी फिल्म में वैसी हिंसा नहीं है। मगर हिंसा है अवश्य। वह खुद मृत्यु की हिंसा है जो उस प्रेमी दंपति के प्रेम के ज़रिए अंजाम दी जा रही है। उनका वह उत्कट प्रेम मृत्यु की उस हिंसा को बहुत सघन बना देता है। यह साधारण मौत नहीं है बल्कि यहाँ प्रेम है जो पीड़ित के दिमाग का जैसे एक एक रेशा उधेड़ रहा है और उसके पति के साथ दर्शक भी यही महसूस कर रहे हैं। मृत्यु गोली नहीं चला रही हैगला नहीं घोंट रही है बल्कि कतरा-कतरा जिस्म को नोच रही है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि यह एक रक्तरंजित फिल्म है जिसमें रक्त दिखाई नहीं दे रहा है। प्रेम की उत्कटता ने उसे छिपा लिया है।
      देखा जाए तो फिल्म में दो ही पात्र हैं और दोनों का अभिनय नए प्रतिमान गढ़ता प्रतीत होता है। विशेष रूप से बूढ़ी औरत के रूप में इमेन्युएल रीवा (Emmanuelle Riva) ने एक कमजोरबीमार और मृत्यु के सामने खड़े पात्र को सजीव कर दिया है। मगर बूढ़ा त्रिनिगनेंट (जर्मन भाषा में इसका उच्चारण भी समझ में नहीं आता, Jean-Louis Trintignant) भी बेहतरीन है। उसने भी मौत के सामने अपनी और अपने प्रेम की असहायता को बखूबी प्रस्तुत किया है। और फिर दोनो की केमेस्ट्री इतनी खूबसूरत है कि इतने अल्प और संक्षिप्त संवादों के बावजूद प्रेम बहुत तीव्रता के साथ उभरकर सामने आता है। कई बार उनके बीच खामोशियाँ हैं जो उनकी पीड़ाखुशी  और नोस्टेल्जिया को बड़ी शिद्दत के साथ प्रकट करती हैं। वैसे खामोशी (साइलेंस) तो इस फिल्म का बहुत मजबूत पक्ष है ही।  संगीत लगभग नहीं है, है ही नहीं। सिर्फ शुरू में थिएटर में बजाई गई धुन है और बूढ़ी औरत का वही शिष्य जब घर पर उसे देखने आता है, तब वह ज़रा सा बजाता है। दूसरी आवाज़ें भी बहुत धीमी और गमगीन सी हैं और चलने कीबिस्तर पर करवट बदलने की और सांस लेने की हल्की आवाज़ें दरअसल खामोशी की शिद्दत को और भी बढ़ा देती हैं। लंबे-लंबे एक फ्रेम और एक कोण वाले और कैमरे की बहुत धीमी गति वाले दृश्य फिल्म को धीमा करते प्रतीत होते हैं लेकिन वही उसका उद्देश्य भी हैदर्शकों को धीरे धीरे अपनी गिरफ्त में ले लेना और फिर छीलते चले जाना। कई बार तो स्टिल फोटोग्राफी तक का इस्तेमाल किया गया है जिसमें फ्लॅट के अंधेरे हिस्से एक एक कर दर्शकों को हाथ पकड़कर फ्लॅट के भीतर खींच लाते हैं। कई बिम्ब हैं जो फिल्म के अवसाद को घना करते हैं। सबका बयान ठीक नहीं होगा मगर बार बार कबूतर का फ्लॅट के भीतर चले आना और उसका बूढ़े द्वारा बड़े प्रयास के बाद बाहर निकाला जाना बहुत कुछ कह जाता है। आखिरी दृश्य में बूढ़े का दरवाजों को एयर टाइट (या साउंड प्रूफ?) बनाने की कोशिश बड़ी मासूम और पीड़ादायक है।
      कुल मिलकर अमोर दो उत्कट प्रेमियों के जीवन के अंतिम कुछ दिनों का विस्तृत और सच्चा ब्योरा है। बूढ़ों के प्रेम पर कई अच्छी फिल्में हैंकहानियाँउपन्यास भी हैं जिन्हें आप बार बार देखना या पढ़ना पसंद करते हैं। लेकिन यह फिल्म ऐसी है कि जिसे, पता नहीं आप दोबारा देखना पसंद करेंगे या नहीं। जिन्हें फिल्म की बारीकियों का अध्ययन करना है उनकी बात अलग है। एक बात और उभरकर सामने आती है कि इस रूप में यह सिर्फ पश्चिमी सभ्यता की ही कहानी हो सकती हैक्योंकि एक तो हमारे यहाँ आज भी पीड़ित का दर्द बांटने वाले कई होते हैं और बूढ़े प्रेमी पति को तो शायद प्रेमिका पत्नी के पास जाने का मौका ही न मिले। इसके अलावा हमारे यहाँ पीड़ित भी कुछ ज़्यादा ही demanding होते हैंउनमें आस पड़ोस से अपेक्षाएँ ज़्यादा होती हैं और इतने लोग इकट्ठा होते हैं कि मृत्यु का भी उत्सव जैसा होता है।
      लेकिन आखिर पीड़ा और प्रेम तो सब जगह एक सा होता है और यही बात संवेदना के स्तर पर इस फिल्म को सर्वजनीन बनती है।

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Sunday, February 15, 2015

हानेके और उनकी फिल्में: (3) कोड अननोन

       
जातिवादी घृणा पर दुनियाभर में कई बेहद अच्छी और लोकप्रिय फिल्में बनी हैं और लेकिन अधिकांश बहुत स्पष्ट संदेश देती हुई फिल्में हैं और उनमें भावुक निष्कर्ष हैं। हानेके की यह खासियत है कि वे अपनी फिल्मों में भावुकता और निष्कर्षों से कोसों दूर रहते हैं। कई बार मैंने महसूस किया है कि जैसे ही आप किसी निष्कर्ष की उम्मीद करने लगते हैं, वे अप्रत्याशित रूप से आपको वहाँ से हटाकर कहीं और ले जाते हैं और आप देखते हैं कि जो आप सोच रहे थे, उसका ठीक विपरीत घटित हो गया। इस तरह वे आपके सुकून और शांति को बार-बार बिखेर देते हैं, झंझोड़ते रहते हैं और आप बार-बार चकित रह जाते हैं, विचलित होते हैं। वे मानते हैं कि यथार्थ की खोज में कोई सहज, सरल उत्तर नहीं है।  
       उनकी फिल्मों का एक-एक फ्रेम एक पहेली की तरह उलझनभरा होता है, आपको सोचने के लिए मजबूर करता है। कोड अननोन में तो कोड भी अननोन है। फिल्म में टाइटल्स के साथ दिखाई गई छोटी सी क्लिप ही इसकी गवाही दे देता है। एक (गूंगी) बच्ची स्टेज पर मूक-अभिनय कर रही है, इशारों में कुछ कह रही है और विभिन्न जातियों के (गूंगे) बच्चे दर्शक हैं, जो एक-एक कर उसकी बात समझने का प्रयास करते हैं मगर कोई इस पहेली को सुलझा नहीं पाता कि वह क्या कह रही है। आप सोचते रह जाते हैं कि आखिर हानेके इस दृश्य में क्या कहना चाहते हैं कि पर्दे पर आपको फिल्म के नाम के साथ यह लिखा दिखाई देता है विभिन्न जीवन-यात्राओं की अधूरी कहानियाँ और जिसके लेखक और निर्देशक हानेके महोदय हैं! इतना आप ज़रूर समझ जाते हैं कि फिल्म जातीय (एथनिक) समस्याओं को सामने लेकर आएगी।
       वास्तव में उपरोक्त दृश्य पहला दृश्य नहीं बल्कि किसी ग्रंथ के पहले पृष्ठ पर, कथा की शुरुआत से पहले दिया जाने वाला कोटेशन मात्र है। पहला दृश्य दरअसल उसके बाद है, जिसमें एक साथ लगभग सभी मुख्य पात्र शामिल होते हैं और फिर बिखर जाते हैं और पूरी फिल्म में उनके अलग-अलग जीवनों के अलग-अलग स्वतंत्र दृश्य हैं, जिनमें दूसरे पात्र भी कभी-कभी शामिल होते दिखाई देते हैं और कभी नहीं भी होते। फिल्म में कोई बंधी-बंधाई कहानी नहीं है और जैसा कि पहले कहा गया, पूरी फिल्म में विभिन्न जीवनों की अधूरी कहानियाँ भर हैं। कई अलग-अलग कहानियों और सब कहानियों की एक मिलीजुली कहानी वाली कई फिल्में बनी हैं, जैसे पल्प फिक्शन या बेबल, लेकिन उनमें सभी कहानियाँ किसी न किसी तरह पूर्ण होती हैं और फिल्में भी इन कहानियों में गुथी सुगठित फिल्में हैं। कोड अननोन में न तो ये कहानियाँ पूर्ण हैं और न ही फिल्म। बिल्कुल अंत में भी एक क्लिप है, जिसमें एक दूसरी (गूंगी) लड़की मूक अभिनय द्वारा कुछ बताती है, जिसका अर्थ दर्शक अपने-अपने तरीके से निकालते रह सकते हैं।
       पहले दृश्य में नायिका का परेशान देवर उसे सड़क पर मिलता है, जो घर का कोड बदल जाने के कारण घर नहीं जा पाया है। नायिका उसे कोड बताती है, घर की चाभी देती है, कुछ खाने को देती है और व्यस्त होने के कारण अपने काम पर जाने लगती है। खाने के बाद देवर खाली मुड़ा-तुड़ा रैपर एक भिखारिन के हाथ में फेंक देता है। एक अफ्रीकी फ्रेंच लड़का उसे आड़े हाथों लेता है और भिखारिन से माफी मांगने के लिए कहता है। आपस में हाथापाई होती है, भीड़ इकट्ठा हो जाती है, नायिका भी शोर सुनकर आ जाती है। पुलिस भी हस्तक्षेप करती है और वह भिखारिन से उसका आई डी मांगती है, जो उसके पास नहीं होता। आसपास के दुकानदार उस भिखारिन से पहले ही परेशान हैं और पुलिस उसे उसके देश, रोमानिया भेज देती है और अफ्रीकी लड़के को, जो कानूनी रूप से फ्रेंच नागरिक बन चुका है, थाने ले जाती है।   
       कोड अननोन तो है मगर जिस तरह दर्शक फिल्म का कोड खोजने में लगे हैं, उसी तरह सभी पात्र जीवन जीने के अपने-अपने कोड खोजने में लगे हैं, जो अलग-अलग पात्रों के लिए एक साथ या अलग-अलग आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और जातीय मामलों में निहित हैं। सभी पात्र एक साथ ही असुरक्षा और दृढ़निश्चय के बीच झूल रहे हैं। नायिका का पति टीवी फोटोग्राफर/रिपोर्टर है और कोसोवों में चल रहे युद्ध और हताहत लोगों की तस्वीरें लेने और वीडियो बनाने गया हुआ है और बाद में वापस आता है। इन तस्वीरों को टीवी पर दिखाने पर होने वाले मतभेद की चर्चा फिल्म में है। वह खुद रोज़ कुछ न कुछ लिखना चाहता है मगर लिख नहीं पाता। भिखारिन की रोमानिया की कठिन ज़िंदगी का चित्रण है, जिसमें यह पता चलता है कि वह और उसका परिवार अपने तंग जीवन में भी क्रमशः आर्थिक तरक्की कर रहा है। इसके बावजूद उसे पैरिस की सड़कों पर भीख मांगना अनुचित नहीं लगता। एकमात्र भावुक और किसी नतीजे तक पहुँचाने वाला दृश्य वह है, जहाँ यह भिखारिन कहती है कि अपने गाँव (सेर्तेजी, चेर्तेजी) में उसने एक गंदे जिप्सी भिखारी को भीख देने के बाद घर आकर साबुन से हाथ धोए थे और यहाँ पैरिस में एक बार एक व्यक्ति उसके हाथ में नोट देते-देते यह सोचकर कि कोई बीमारी न लग जाए, नोट उस पर फेंककर तेज़ी के साथ आगे बढ़ जाता है। (पता नहीं यह दृश्य हानेके ने क्यों रखा है, शायद एक बार दर्शकों को अलग तरह से आश्चर्यचकित करने के लिए?) अफ्रीकी (मालियन) परिवार है, जो अपने साथ हो रहे जातीय ज़ुल्मों से त्रस्त है मगर वापस जाने के लिए तैयार नहीं है। उनका लड़का बहुत भला लड़का है और कभी कोई गलत काम नहीं करता। माँ कहती है, उसके साथ ज़ुल्म करने वालों को अल्लाह सबक क्यों नहीं सिखाता? उनका ड्राईवर पिता अपनी पत्नी को समझता है कि हम गोरों के देश में रह रहे हैं, जिनके तौर-तरीके हमसे बहुत अलग हैं और हमें यह बात समझनी चाहिए। बाद में वह अपने देश जाता है और वहाँ के लोग उसकी शानदार कार को देखकर आश्चर्यचकित रह जाते हैं।     
       प्रमुख पात्र, ऐन (जूलिएट बीनश) फिल्मों में संघर्ष कर रही है और सामान्य मध्यवर्ग का जीवन जी रही है। वह एक साथ कई फिल्मों में काम करती नज़र आती है, जो उसके और सभी शहरी जीवनों के प्रतीक की तरह नज़र आता है। नायिका के अभिनेत्री होने और शूटिंग करते रहने का हानेके ने बड़ी चतुराई के साथ इस्तेमाल किया है। इन दृश्यों की सहायता से वे बार बार दर्शकों को दृश्य में ले जाते हैं। एक दृश्य में नायिका एक कमरे में बंद है और कोई गुंडा ज़हरीली गैस कमरे में छोड़ रहा है। दर्शक इसे फिल्म का हिस्सा समझकर किसी कहानी की उम्मीद कर रहा होता है कि पता चलता है, किसी दृश्य की शूटिंग हो रही है। एक पत्र के मिलने पर वह असुरक्षित महसूस करती है और अपने पति से उसकी व्यस्तता की शिकायत करती है। अंतिम दृश्य में किसी त्रिकोण का आभास होते-होते वास्तविकता ज़ाहिर हो जाती है कि यह फिल्म है।
       मीडिया का चित्रण हानेके की विशेषता है। उनमें यथार्थ और फिल्म, जीवन और काल्पनिकता, दर्शक और पर्दे के बीच सहज आवागमन होता दिखाई देता है। वे रिमोट से टीवी समाचारों को रिवाईंड करके खबरों का रुख ही बदल देते हैं (फनी गेम्स) और दर्शक हैरान रह जाते हैं कि दरअसल सही खबर क्या है।
       कई बार मैं सोचता हूँ कि हत्या और बलात्कार पर आजकल लोग उतने उद्वेलित क्यों नहीं होते। मुझे इसका कारण यह नज़र आता है कि लोग उन्हें टीवी पर देखते हैं। टैरेंटिनो की फिल्मों की हत्या और आईएसआईएस द्वारा गला काटने के वीडियो के बीच अंतर समाप्त हो चुका है। अवचेतन में वे आईएसआईएस की हत्या को भी फिल्म समझने लगे हैं। लेकिन हानेके आपको हर वक़्त चैतन्य रखते हैं। हत्या की घटना वे नहीं फिल्माते बल्कि उसे देखने वालों को फिल्माते हैं और उन दर्शकों में खुद फिल्म का दर्शक भी शामिल होता है। इस तरह आप हत्या की फिल्म नहीं देख रहे होते बल्कि हत्या देख रहे होते हैं, जो पर्दे पर नहीं दिखाई जा रही है। हत्या की घटना को आप भूल नहीं सकते, उसे देखकर स्थायी आतंक उपजता है लेकिन उसका वीडियो (या फिल्म) देखकर कुछ समय के लिए दया, क्रोध, जुगुप्सा या आतंक भी पैदा होते हैं मगर इनमें से कुछ भी मस्तिष्क पर उत्कीर्ण नहीं होते। हानेके अपनी फिल्मों से दर्शकों के मन में यही दीर्घकालिक आतंक पैदा करते हैं।
       यह फिल्म एक बार देखकर कोई नहीं समझ सकता बल्कि फिल्म में समझने लायक कुछ है भी नहीं। अनुभव करने की बात है और जितनी बार आप फिल्म देखेंगे आपको कुछ न कुछ अतिरिक्त देखने को मिलेगा, अलग-अलग स्थानों पर पहले से अलग अनुभव होगा। हर बार आपको लगेगा कि कुछ छूट गया, फिर देखा जाए। जिसके पास इतना समय और धैर्य है, वही इस फिल्म को देखें। लेकिन एक बार देखना शुरू करने के बाद आप इसके जादू से मुक्त नहीं हो पाएँगे।  
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