हानेके की 'अमोर' एक उत्कृष्ट फिल्म है और इसे 2012 का ऑस्कर पुरस्कार (विदेशी भाषा) भी मिल चुका है। यह फिल्म भी हानेके की टिपिकल फिल्म है और यह भी आपको पूरे समय विस्मयपूर्ण आतंक में जकड़कर रखेगी। आप चाहेंगे कि आपके मित्र भी उसे देखें मगर सिफारिश करते
हुए उन्हें आगाह अवश्य करेंगे कि भाई, आप उसमें किसी मनोरंजन की अपेक्षा मत
कीजिएगा और कमजोर दिल वाले हों तो न ही देखें तो अच्छा। वह पूछेगा, हॉरर मूवी है क्या, तो आप कुछ कह नहीं पाएंगे या शायद कह
ही दें कि हाँ, है। फिल्म में रक्त की एक बूंद नहीं है, गोला बारूद, भयानक आकृतियाँ नहीं हैं, यहाँ तक कि हॉरर फिल्मों वाला संगीत भी नहीं है, इसके बावजूद पूरी फिल्म में आपको दिल की धड़कनें रुकती हुई महसूस
होती हैं। फिल्म की समाप्ति पर आप काफी देर कुर्सी से उठ नहीं पाएंगे और फिल्म
देखने की वह खुशी, जो आम तौर पर प्राप्त होती है, या सुकून आपको प्राप्त नहीं होंगे। थिएटर से बाहर निकलकर आप
शायद फिल्म के विषय में बात तक करना पसंद न करें।
फिल्म
की शुरुआत आम फिल्मों की तरह होती है और कुछ पुलिस वाले और फायर ब्रिगेड के
अधिकारी एक फ्लॅट का दरवाजा तोड़कर अंदर दाखिल होते हैं और फ्लॅट की तलाशी लेते
हैं। एक कमरे में उन्हें एक बहुत बूढ़ी औरत की लाश पलंग पर पड़ी दिखाई देती है जिसका
शरीर सफ़ेद पड़ गया है और उस पर फूल बिखरे हुए हैं। सारे फ्लॅट में लाश की दुर्गंध
फैली हुई है और लोगों ने अपने मुंह ढांक रखे हैं। फ़्लैशबैक। दृश्य बदलता है और एक थिएटर में संगीत
का कार्यक्रम चल रहा है। तालियों की गड़गड़ाहट के पश्चात हम एक बूढ़े दंपति के साथ
वापस फ्लॅट में लौटते हैं जहां दरवाजे का ताला तोड़ने की कोशिश की गई है। दोनों सहम
जाते हैं और बूढ़ा औरत को ढाढ़स बंधाने की कोशिश कर रहा है। रात। औरत को नींद नहीं आ
रही है और वह सोच रही है कि कौन आया होगा। आया तो ज़रूर है मगर मौत को ताला या दरवाजा तोड़कर आने की ज़रूरत
नहीं है।
सबेरे
नाश्ता करते वक़्त अचानक औरत गुमसुम हो जाती है। उस पर डिमेन्शिया का हमला हुआ है
और कुछ समय के लिए वह चेतनाशून्य हो जाती है। बूढ़ा पहले तो उसे होश में लाने की
कोशिश करता है फिर पड़ोस में किसी की सहायता मांगने जाने लगता है। मगर इसी बीच औरत
को होश आ जाता है और फिर शुरू होता है मौत का क्रूर खेल। जैसे कोई बिल्ली अपने
शिकार को गड़प करने से पहले उसके साथ खेल रही हो। मगर यहाँ दर्शक भी जैसे लहूलुहान
हो रहा है। कुछ स्थिर चित्रों के लंबे-लंबे दृश्यों की सहायता से निर्देशक दर्शक
को फ्लॅट के भीतर खींच लाया है और इस सारे खेल में उसे भी एक अदृश्य पात्र की तरह
शामिल होना है। औरत का दाहिना हाथ लकवाग्रस्त हो गया है और अब पूरी फिल्म में उसे
तिल-तिलकर मरना है। बीच-बीच में डॉक्टर है, उनकी बेटी और दामाद हैं, नर्सें हैं, एकाध पड़ोसी है मगर कुल मिलाकर उस
धुंधले फ्लॅट में वे दोनों मौत से अकेले जूझ रहे हैं। उनका संघर्ष व्यर्थ है और
उसमें कोई भागीदार भी नहीं है। दूसरों की भागीदारी की व्यर्थता तो वैसे भी स्पष्ट
है और खुद औरत भी किसी की सहायता नहीं लेना चाहती, बेटी
की नहीं,
नर्सों
की नहीं और आखिर में खुद अपने प्रेमी, बूढ़े पति की भी नहीं। कुछ महीनों की
इस यंत्रणा को दो घंटे की फिल्म में साकार कर देना और उस यातना में दर्शक को इस
कदर ग्रसित कर लेना वाकई एक बेहद प्रतिभाशाली निर्देशक का काम ही हो सकता है। यह
फिल्म इतनी धीमी है कि शायद बहुत से दर्शक बोर भी हो सकते हैं मगर यदि वे बोर नहीं
हो रहे हैं तो उन्हें उस यंत्रणा में से गुजरने के लिए तैयार रहना होगा जो उस पूरे
फ्लॅट में पसरी हुई है।
शुरू
में जब हम पुलिस और फायर ब्रिगेड को दरवाजा तोड़कर भीतर दाखिल होता हुआ देखते हैं
तो हम किसी हिंसा और खून खराबे की अपेक्षा करने लगते हैं मगर पूरी फिल्म में वैसी
हिंसा नहीं है। मगर हिंसा है अवश्य। वह खुद मृत्यु की हिंसा है जो उस प्रेमी दंपति
के प्रेम के ज़रिए अंजाम दी जा रही है। उनका वह उत्कट प्रेम मृत्यु की उस हिंसा को
बहुत सघन बना देता है। यह साधारण मौत नहीं है बल्कि यहाँ प्रेम है जो पीड़ित के
दिमाग का जैसे एक एक रेशा उधेड़ रहा है और उसके पति के साथ दर्शक भी यही महसूस कर
रहे हैं। मृत्यु गोली नहीं चला रही है, गला नहीं घोंट रही है बल्कि कतरा-कतरा जिस्म को नोच रही है।
इसीलिए मैं कहता हूँ कि यह एक रक्तरंजित फिल्म है जिसमें रक्त दिखाई नहीं दे रहा
है। प्रेम की उत्कटता ने उसे छिपा लिया है।
देखा
जाए तो फिल्म में दो ही पात्र हैं और दोनों का अभिनय नए प्रतिमान गढ़ता प्रतीत होता
है। विशेष रूप से बूढ़ी औरत के रूप में इमेन्युएल रीवा (Emmanuelle Riva) ने एक कमजोर, बीमार और मृत्यु के सामने खड़े पात्र को
सजीव कर दिया है। मगर बूढ़ा त्रिनिगनेंट (जर्मन भाषा में इसका उच्चारण भी समझ में नहीं आता, Jean-Louis Trintignant) भी बेहतरीन है। उसने भी मौत के सामने
अपनी और अपने प्रेम की असहायता को बखूबी प्रस्तुत किया है। और फिर दोनो की
केमेस्ट्री इतनी खूबसूरत है कि इतने अल्प और संक्षिप्त संवादों के बावजूद प्रेम
बहुत तीव्रता के साथ उभरकर सामने आता है। कई बार उनके बीच खामोशियाँ हैं जो उनकी
पीड़ा,
खुशी और नोस्टेल्जिया को बड़ी शिद्दत के साथ प्रकट
करती हैं। वैसे खामोशी (साइलेंस) तो इस फिल्म का बहुत मजबूत पक्ष है ही। संगीत लगभग नहीं है, है ही नहीं। सिर्फ शुरू में थिएटर में बजाई गई धुन है और बूढ़ी
औरत का वही शिष्य जब घर पर उसे देखने आता है, तब वह ज़रा सा बजाता है। दूसरी आवाज़ें
भी बहुत धीमी और गमगीन सी हैं और चलने की, बिस्तर पर करवट बदलने की और सांस लेने की हल्की आवाज़ें दरअसल
खामोशी की शिद्दत को और भी बढ़ा देती हैं। लंबे-लंबे एक फ्रेम और एक कोण वाले और
कैमरे की बहुत धीमी गति वाले दृश्य फिल्म को धीमा करते प्रतीत होते हैं लेकिन वही
उसका उद्देश्य भी है, दर्शकों को धीरे धीरे अपनी गिरफ्त में ले लेना और फिर छीलते चले
जाना। कई बार तो स्टिल फोटोग्राफी तक का इस्तेमाल किया गया है जिसमें फ्लॅट के
अंधेरे हिस्से एक एक कर दर्शकों को हाथ पकड़कर फ्लॅट के भीतर खींच लाते हैं। कई
बिम्ब हैं जो फिल्म के अवसाद को घना करते हैं। सबका बयान ठीक नहीं होगा मगर बार
बार कबूतर का फ्लॅट के भीतर चले आना और उसका बूढ़े द्वारा बड़े प्रयास के बाद बाहर
निकाला जाना बहुत कुछ कह जाता है। आखिरी दृश्य में बूढ़े का दरवाजों को एयर टाइट
(या साउंड प्रूफ?) बनाने की कोशिश बड़ी मासूम और पीड़ादायक
है।
कुल
मिलकर अमोर दो उत्कट प्रेमियों के जीवन के अंतिम कुछ दिनों का विस्तृत और सच्चा
ब्योरा है। बूढ़ों के प्रेम पर कई अच्छी फिल्में हैं, कहानियाँ, उपन्यास भी हैं जिन्हें आप बार बार
देखना या पढ़ना पसंद करते हैं। लेकिन यह फिल्म ऐसी है कि जिसे, पता नहीं आप दोबारा देखना पसंद करेंगे या नहीं। जिन्हें फिल्म
की बारीकियों का अध्ययन करना है उनकी बात अलग है। एक बात और उभरकर सामने आती है कि
इस रूप में यह सिर्फ पश्चिमी सभ्यता की ही कहानी हो सकती है, क्योंकि एक तो हमारे यहाँ आज भी पीड़ित
का दर्द बांटने वाले कई होते हैं और बूढ़े प्रेमी पति को तो शायद प्रेमिका पत्नी के
पास जाने का मौका ही न मिले। इसके अलावा हमारे यहाँ पीड़ित भी कुछ ज़्यादा ही demanding होते हैं, उनमें आस पड़ोस से अपेक्षाएँ ज़्यादा
होती हैं और इतने लोग इकट्ठा होते हैं कि मृत्यु का भी उत्सव जैसा होता है।
लेकिन
आखिर पीड़ा और प्रेम तो सब जगह एक सा होता है और यही बात संवेदना के स्तर पर इस
फिल्म को सर्वजनीन बनती है।
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