Sunday, September 4, 2016

कट्टरवाद नई नई सीमाएँ तय करता है।


मैंने अपनी पिछली किसी पोस्ट में कहा था कि समय के साथ बुराई अपनी एक उच्चतर सीमा तय करती रहती है, जिसके नीचे उतरना यानी उससे बेहतर होना किसी के लिए मुमकिन नहीं होता। जैसे अमरीका में पिछले तीस साल से दक्षिणपंथ का क्रमिक विकास होता गया और बुश द्वारा तय सीमा को ओबामा जैसा सौम्य व्यक्ति भी नीचे नहीं ला पाया और अब रिपब्लिकन उम्मीदवार ट्रम्प ने उसकी सीमा को एक और नई ऊँचाई पर पहुँचा दिया है जिसे हिलैरी क्लिंटन अगर सत्ता में आ भी जाती हैं तो कम नहीं कर सकेंगी। यही हाल भारत में है। नेहरू कभी मंदिर नहीं गए, मस्जिद भी नहीं गए लेकिन इंदिरा गांधी ने मंदिर, मस्जिद गुरुद्वारे, चर्च कुछ नहीं छोड़े और इस तरह अपने 17 साला कार्यकाल में देश को धर्मों, बाबाओं और सांप्रदायवाद से नत्थी कर दिया। स्वाभाविक ही उससे सांप्रदायिकता को बढ़ावा मिला और वह एक निश्चित ऊँचाई पर आकर कुछ समय के लिए स्थिर हो गई। फिर राजीव जी आए। सौम्य, सुदर्शन थे, सीधे-सादे, भोलेभाले भी थे लेकिन उस सीमा को नीचे नहीं ला सके बल्कि अनजाने में ही सही, उसे काफी ऊपर ले गए। उस सीमा का लाभ बीजेपी ने उठाया और क्रमशः उसे नई-नई ऊँचाइयाँ प्रदान कीं। मुझे खुशी है कि कांग्रेसी मेरे इस सिद्धान्त को खरा सिद्ध करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। सोनिया जी ने बनारस में मंदिरों की यात्रा करके और वहाँ अभिषेक, पूजा-अर्चना करके साबित कर दिया है कि बीजेपी ही नहीं बल्कि सारे के सारे दल देश में लगातार फूहड़ होती जा रही धार्मिकता को रोकने की जगह उसे नित नई ऊंचाइयों पर स्थापित करने के काम में लगे हुए हैं, भले ही देश का और उसमें रहने वाली जनता का बेड़ा गर्क होता रहे। पता नहीं देश को कब तक धार्मिकता के नर्क में रहना होगा और उससे उपजने वाली सांप्रदायिकता में जलते रहना होगा।
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ईश्वर को कौन मानता है?

मुझे नहीं लगता कि इक्कीसवीं सदी में कोई भी ईश्वर को मानता हो या उसके अस्तित्व पर संदेह न करता हो। विशेष रूप से ईश्वर का ज़ोर-शोर से प्रचार करने वाले, उसकी महानता का बखान करने वाले और धर्म के ठेकेदार यानी हिंदुओं की उच्च जाति के लोग और बाकी मुल्ला-मौलवी, पादरी आदि तो बिलकुल नहीं मानते।* अपढ़, गरीब और कमजोर लोगों का येन केन प्रकारेण दमन और शोषण करने के लिए वे ईश्वर का हवाला देते हैं, उसकी महिमा गाते रहते हैं। हाँ, धर्म को सब या अधिकांश लोग मानते हैं, पंडित, मुल्ला, पादरी और गरीब-गुरबा, दलित इत्यादि सभी। यह अजीबोगरीब लग सकता है लेकिन इसमें मुझे कोई अचरज नहीं होता। हिन्दू नास्तिकों का अक्सर उन लोगों से पाला पड़ता है जो उनसे हँसी-हँसी में कह जाते हैं, नास्तिक हो तो क्या हुआ, हिन्दू तो हो! इसी तरह जावेद अख्तर ने कई बार घोषणा की है कि वे नास्तिक हैं लेकिन एक भी मुसलमान बता दें जो उन्हें मुसलमान न समझता हो। कहने का अर्थ यह कि आज यह स्थिति तो आ ही गई है कि ईश्वर या अल्लाह को मानना अप्रासंगिक हो गया है। इतना सभी जान गए हैं कि उसे मानने या न मानने से कोई फर्क नहीं पड़ता, वह आपको किसी तरह प्रभावित नहीं करता, न आपका कुछ बिगाड़ता है न आपका कोई काम बनाता है। हाँ, धर्म आपके जीवन को न सिर्फ प्रभावित करता है बल्कि आप देखेंगे कि हर तरह के अंधविश्वासों और हर तरह की रूढ़िवादिता और आदेशों और नियमों के ज़रिए वह न सिर्फ आपका समय और पैसा बरबाद करता है बल्कि समाज में ऊँच-नीच और भेदभाव को मजबूत करके आपसी भाईचारे को भी समाप्त करने का कारण बनता है।
*[ईश्वर के बारे में यह चर्चा आम तौर पर होती रहती है:
‘सब कुछ जानने वाले, सबका भला करने वाले, दयालु ईश्वर को मानते हो तो बीमार पड़ने पर डॉक्टर के पास क्यों जाते हो?’
‘ईश्वर ने हमें अपने कर्म करने का आदेश दिया है इसलिए जाते हैं। ठीक करना या न करना ईश्वर की मर्ज़ी पर निर्भर है।’
असल में उनका ईश्वर पर विश्वास नहीं होता। हाँ, धर्म को मानते हैं इसलिए डॉक्टर के पास जाते हैं। कर्म करने का आदेश तो धर्म ने दिया होता है, ईश्वर आकर उनके कानों में नहीं कहता कि डॉक्टर के पास जाओ? कुछ लोग कहेंगे कि ईश्वर तर्क का विषय नहीं है। यह मैं भी मानता हूँ लेकिन धर्म तो तर्क का विषय है, अन्यथा इतने धर्म नहीं होते, उन पर टीकाएँ नहीं होतीं। मैं ईश्वर पर नहीं धर्म पर अपनी बात कह रहा हूँ।]
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शून्य और ब्रह्मगुप्त

शून्य और ब्रह्मगुप्त
गणितीय अर्थ में शून्य का सबसे पहला स्पष्ट उल्लेख जैन ग्रंथ ‘लोकविभाग’ में मिलता है जिसकी रचना लगभग सन 458 में की गई होगी। उसके बाद ग्वालियर के पास प्राप्त एक ताम्रपत्र में एक सूक्ष्म वृत्त के रूप में शून्य लिखा मिलता है। यह ताम्रपत्र छठवीं शताब्दी का माना जाता है। उसके पहले आर्यभट ने शून्य की स्पष्ट कल्पना करके विभिन्न गणनाएँ तो की थीं लेकिन वह पद्य और गद्य में किया गया था। सबसे पहले ब्रह्मगुप्त ने (सन 598/665) सातवीं शताब्दी में शून्य का व्यापक गणितीय इस्तेमाल करते हुए बहुत सी स्थापनाएँ दीं जिनमें से प्रमुख पाँच (दरअसल आठ) नीचे दे रहा हूँ। इन्हीं स्थापनाओं का इस्तेमाल बीजगणित में आज भी जस का तस किया जाता है और उन्हें हम गणित के मूलभूत नियम कह सकते हैं हालांकि उनकी चौथी स्थापना अब गलत सिद्ध हो चुकी है क्योंकि अ/0 एक अनिश्चित indeterminate संख्या मानी जाती है।
अ+0=अ
अ-0=अ और 0-अ=-अ
अx0=0
अ/0=0
0/अ=0
सबसे पहले ब्रह्मगुप्त ने ही जोड़ और घटाने के लिए धन (+) और ऋण (-) चिह्न का उपयोग किया और उन्हें धन और ऋण नामों से पुकारा। राजस्थान के गुर्जर राजाओं की राजधानी भीनमाल में उनका जन्म हुआ था लेकिन उन्होंने अपना सारा जीवन गणित और खगोलशास्त्र की राजधानी उज्जैन में व्यतीत किया। उस समय तक प्रख्यात खगोलशास्त्री वराहमिहिर (सन 505/587) के कारण उज्जैन का नाम जगप्रसिद्ध था और ग्रीस, रोम, अरब और ईरान से विद्वान वहाँ चर्चा हेतु आया करते थे। ऐसी ही एक सभा में शून्य की चर्चा के दौरान ब्रह्मगुप्त ने गणनाओं के लिए अपने नए सिद्धांतों का निरूपण किया और उसे स्पष्ट रूप से समझाने के लिए तीस साल की उम्र में ‘ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त’ नामक ग्रंथ की रचना की। बाद में 67 साल की उम्र में उन्होंने ‘कारणखंडखाद्यक’ नामक ग्रंथ की रचना की जिसमें उस वक्त प्रचलित गणित पर अनेकानेक टीकाएँ की गई हैं और आर्यभट के कुछ सिद्धांतों का भी खंडन करते हुए नई स्थापनाएँ दी गई हैं।
सन 600 से 1000 तक अरब और मध्यपूर्व के देशों ने अनेक महान वैज्ञानिक और गणितज्ञ पैदा किए। दुनिया भर में अरब घुमंतुओं के रूप में विख्यात हैं क्योंकि व्यापार के लिए उन्हें दुनिया भर में घूमना पड़ता था और भारत से तो उनका हजारों साल पुराना नाता रहा है। कहते हैं कि प्रख्यात ईरानी गणितज्ञ ख्वार्ज़िमी (सन 780/850) भी भारत आए थे। खैर, तो इसी कड़ी में आर्यभट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त का गणित और शून्य अरब देशों से स्पेन और वहाँ से यूरोप भर में फैले और फले-फूले। बाद में अनेकानेक अरबी, ईरानी और यूरोपियन गणितज्ञों का योगदान भी उसमें जुड़ता गया। गणित के प्रख्यात इतिहासकार जॉर्ज सोर्टन ब्रह्मगुप्त को दुनिया भर में आज तक पैदा हुए महानतम गणितज्ञों में से एक और अपने समय का महानतम गणितज्ञ मानते हैं।
(अच्युत गोडबोले और माधवी ठाकुरदेसाई की मराठी पुस्तक ‘गणिती’ के आधार पर)
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ऑर्थर रैम्बो

ओर्थर रैम्बो का जन्म 1854 में और मृत्यु 1891 में हुई यानी वे सिर्फ 37 साल जिए। 16 साल की उम्र में उन्होंने बाकायदा कविता लिखने का मन बनाया और एक पत्र अपने मित्र को लिखा:
"मैंने अब अपने आपको उच्चकोटि का नीच बनाने का इरादा किया है क्योंकि अब मैं कविता लिखना चाहता हूँ। कोशिश कर रहा हूँ कि अब मैं भविष्यवाणियाँ कर सकूँ। लेकिन तुम नहीं समझोगे और न मैं तुम्हें समझा सकता हूँ। योजना यह है कि मैं अपने उन्माद और बावलेपन में अज्ञात तक पहुँच सकूँ। यह बहुत त्रासदायक काम है लेकिन एक जन्मजात कवि बनने के लिए मुझे मजबूत बनना होगा और धैर्य के साथ इस काम में लग जाना होगा।"
वे एक लंपट और व्यभिचारी के रूप में जाने जाते हैं और कवि पॉल वेरलेन के साथ उनके बड़े घनिष्ठ, रोमानी और हिंसक समलैंगिक संबंध रहे। बीस या इक्कीस साल की उम्र में उन्होंने गुलामों का व्यापार शुरू किया जो एक कवि होते हुए उनके लिए बड़ा मुश्किल काम था। तब बड़ी ईमानदारी के साथ उन्होंने घोषणा की कि वे कविता लिखना छोड़ रहे हैं और उसके बाद जीवन भर कविताएं नहीं लिखीं। बुरा व्यक्ति होते हुए अच्छा कवि कैसे हुआ जा सकता है, उनसे सीखा जा सकता है। एक साथ दोनों आप नहीं हो सकते।
प्रतीकवादी फ्रांसीसी कवियों में उनकी गिनती प्रमुखता से होती है। उनकी एक कविता: (जल्दबाज़ी में किया गया त्रुटिपूर्ण अनुवाद मेरा, इसलिए अंग्रेज़ी भी दे रहा हूँ।)
हर चीज़ देख लेने के बाद...
नज़र हवा में चमक रही है।
सब कुछ पाया जा चुका है...
शाम को, धूप में और हर वक़्त कान पर पड़ने वाली दूर शहर की आवाज़ें।
हर चीज़ जानी जा चुकी हैं...
ओ कोलाहल, ओ नज़र! ये सब जीवन की विश्रामगाहें हैं।
प्यार में वियोग और चमकती आवाज़ें।
(Everything seen...
The vision gleams in every air.
Everything had...
The far sound of cities, in the evening,
In sunlight, and always.
Everything known...
O Tumult! O Visions! These are the stops of life.
Departure in affection, and shining sounds.)
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(येव्तुशेंको की एक छोटी सी टिप्पणी पढ़ने के बाद और विकिपीडिया की मदद लेकर)

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