शून्य और ब्रह्मगुप्त
गणितीय अर्थ में शून्य का सबसे पहला स्पष्ट उल्लेख जैन ग्रंथ ‘लोकविभाग’ में मिलता है जिसकी रचना लगभग सन 458 में की गई होगी। उसके बाद ग्वालियर के पास प्राप्त एक ताम्रपत्र में एक सूक्ष्म वृत्त के रूप में शून्य लिखा मिलता है। यह ताम्रपत्र छठवीं शताब्दी का माना जाता है। उसके पहले आर्यभट ने शून्य की स्पष्ट कल्पना करके विभिन्न गणनाएँ तो की थीं लेकिन वह पद्य और गद्य में किया गया था। सबसे पहले ब्रह्मगुप्त ने (सन 598/665) सातवीं शताब्दी में शून्य का व्यापक गणितीय इस्तेमाल करते हुए बहुत सी स्थापनाएँ दीं जिनमें से प्रमुख पाँच (दरअसल आठ) नीचे दे रहा हूँ। इन्हीं स्थापनाओं का इस्तेमाल बीजगणित में आज भी जस का तस किया जाता है और उन्हें हम गणित के मूलभूत नियम कह सकते हैं हालांकि उनकी चौथी स्थापना अब गलत सिद्ध हो चुकी है क्योंकि अ/0 एक अनिश्चित indeterminate संख्या मानी जाती है।
अ+0=अ
अ-0=अ और 0-अ=-अ
अx0=0
अ/0=0
0/अ=0
सबसे पहले ब्रह्मगुप्त ने ही जोड़ और घटाने के लिए धन (+) और ऋण (-) चिह्न का उपयोग किया और उन्हें धन और ऋण नामों से पुकारा। राजस्थान के गुर्जर राजाओं की राजधानी भीनमाल में उनका जन्म हुआ था लेकिन उन्होंने अपना सारा जीवन गणित और खगोलशास्त्र की राजधानी उज्जैन में व्यतीत किया। उस समय तक प्रख्यात खगोलशास्त्री वराहमिहिर (सन 505/587) के कारण उज्जैन का नाम जगप्रसिद्ध था और ग्रीस, रोम, अरब और ईरान से विद्वान वहाँ चर्चा हेतु आया करते थे। ऐसी ही एक सभा में शून्य की चर्चा के दौरान ब्रह्मगुप्त ने गणनाओं के लिए अपने नए सिद्धांतों का निरूपण किया और उसे स्पष्ट रूप से समझाने के लिए तीस साल की उम्र में ‘ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त’ नामक ग्रंथ की रचना की। बाद में 67 साल की उम्र में उन्होंने ‘कारणखंडखाद्यक’ नामक ग्रंथ की रचना की जिसमें उस वक्त प्रचलित गणित पर अनेकानेक टीकाएँ की गई हैं और आर्यभट के कुछ सिद्धांतों का भी खंडन करते हुए नई स्थापनाएँ दी गई हैं।
सन 600 से 1000 तक अरब और मध्यपूर्व के देशों ने अनेक महान वैज्ञानिक और गणितज्ञ पैदा किए। दुनिया भर में अरब घुमंतुओं के रूप में विख्यात हैं क्योंकि व्यापार के लिए उन्हें दुनिया भर में घूमना पड़ता था और भारत से तो उनका हजारों साल पुराना नाता रहा है। कहते हैं कि प्रख्यात ईरानी गणितज्ञ ख्वार्ज़िमी (सन 780/850) भी भारत आए थे। खैर, तो इसी कड़ी में आर्यभट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त का गणित और शून्य अरब देशों से स्पेन और वहाँ से यूरोप भर में फैले और फले-फूले। बाद में अनेकानेक अरबी, ईरानी और यूरोपियन गणितज्ञों का योगदान भी उसमें जुड़ता गया। गणित के प्रख्यात इतिहासकार जॉर्ज सोर्टन ब्रह्मगुप्त को दुनिया भर में आज तक पैदा हुए महानतम गणितज्ञों में से एक और अपने समय का महानतम गणितज्ञ मानते हैं।
(अच्युत गोडबोले और माधवी ठाकुरदेसाई की मराठी पुस्तक ‘गणिती’ के आधार पर)
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गणितीय अर्थ में शून्य का सबसे पहला स्पष्ट उल्लेख जैन ग्रंथ ‘लोकविभाग’ में मिलता है जिसकी रचना लगभग सन 458 में की गई होगी। उसके बाद ग्वालियर के पास प्राप्त एक ताम्रपत्र में एक सूक्ष्म वृत्त के रूप में शून्य लिखा मिलता है। यह ताम्रपत्र छठवीं शताब्दी का माना जाता है। उसके पहले आर्यभट ने शून्य की स्पष्ट कल्पना करके विभिन्न गणनाएँ तो की थीं लेकिन वह पद्य और गद्य में किया गया था। सबसे पहले ब्रह्मगुप्त ने (सन 598/665) सातवीं शताब्दी में शून्य का व्यापक गणितीय इस्तेमाल करते हुए बहुत सी स्थापनाएँ दीं जिनमें से प्रमुख पाँच (दरअसल आठ) नीचे दे रहा हूँ। इन्हीं स्थापनाओं का इस्तेमाल बीजगणित में आज भी जस का तस किया जाता है और उन्हें हम गणित के मूलभूत नियम कह सकते हैं हालांकि उनकी चौथी स्थापना अब गलत सिद्ध हो चुकी है क्योंकि अ/0 एक अनिश्चित indeterminate संख्या मानी जाती है।
अ+0=अ
अ-0=अ और 0-अ=-अ
अx0=0
अ/0=0
0/अ=0
सबसे पहले ब्रह्मगुप्त ने ही जोड़ और घटाने के लिए धन (+) और ऋण (-) चिह्न का उपयोग किया और उन्हें धन और ऋण नामों से पुकारा। राजस्थान के गुर्जर राजाओं की राजधानी भीनमाल में उनका जन्म हुआ था लेकिन उन्होंने अपना सारा जीवन गणित और खगोलशास्त्र की राजधानी उज्जैन में व्यतीत किया। उस समय तक प्रख्यात खगोलशास्त्री वराहमिहिर (सन 505/587) के कारण उज्जैन का नाम जगप्रसिद्ध था और ग्रीस, रोम, अरब और ईरान से विद्वान वहाँ चर्चा हेतु आया करते थे। ऐसी ही एक सभा में शून्य की चर्चा के दौरान ब्रह्मगुप्त ने गणनाओं के लिए अपने नए सिद्धांतों का निरूपण किया और उसे स्पष्ट रूप से समझाने के लिए तीस साल की उम्र में ‘ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त’ नामक ग्रंथ की रचना की। बाद में 67 साल की उम्र में उन्होंने ‘कारणखंडखाद्यक’ नामक ग्रंथ की रचना की जिसमें उस वक्त प्रचलित गणित पर अनेकानेक टीकाएँ की गई हैं और आर्यभट के कुछ सिद्धांतों का भी खंडन करते हुए नई स्थापनाएँ दी गई हैं।
सन 600 से 1000 तक अरब और मध्यपूर्व के देशों ने अनेक महान वैज्ञानिक और गणितज्ञ पैदा किए। दुनिया भर में अरब घुमंतुओं के रूप में विख्यात हैं क्योंकि व्यापार के लिए उन्हें दुनिया भर में घूमना पड़ता था और भारत से तो उनका हजारों साल पुराना नाता रहा है। कहते हैं कि प्रख्यात ईरानी गणितज्ञ ख्वार्ज़िमी (सन 780/850) भी भारत आए थे। खैर, तो इसी कड़ी में आर्यभट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त का गणित और शून्य अरब देशों से स्पेन और वहाँ से यूरोप भर में फैले और फले-फूले। बाद में अनेकानेक अरबी, ईरानी और यूरोपियन गणितज्ञों का योगदान भी उसमें जुड़ता गया। गणित के प्रख्यात इतिहासकार जॉर्ज सोर्टन ब्रह्मगुप्त को दुनिया भर में आज तक पैदा हुए महानतम गणितज्ञों में से एक और अपने समय का महानतम गणितज्ञ मानते हैं।
(अच्युत गोडबोले और माधवी ठाकुरदेसाई की मराठी पुस्तक ‘गणिती’ के आधार पर)
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