Wednesday, August 31, 2016

विडंबना-कथा

दैनिक भास्कर के पिछले पृष्ठ पर आज पाँच मुख्य समाचार हैं जो एक साथ मिलकर एक विडंबना-कथा कहते हैं।
पहला है: औरंगाबाद (महाराष्ट्र) मंडी में एक किसान ने 382 किलो प्याज़ बेचा और जब अपना पैसा लेने गया तो पता चला उल्टे उसे ही 116 रुपए देने होंगे। प्रश्न यह है कि यह किसान वापस लौटकर क्या करेगा। क्या वह किसी से उधार लेकर सरकार के 116 रुपए लौटाएगा? क्या सीधे खेत जाएगा, कुएँ पर पड़ी बाल्टी की रस्सी निकालेगा और कोई बड़ा सा मजबूत वृक्ष ढूंढ़कर फाँसी लगा लेगा? उधार लेकर उधार चुकाने से बेहतर मुझे दूसरा विकल्प लग रहा है तो कृपया आश्चर्य न करें।
दूसरा है, बुद्धदेव जी की पिछली सरकार के विरुद्ध कोर्ट का निर्णय। 2006 में मार्क्सवादी सरकार ने सारे नियम-क़ानूनों को ताक पर रखकर टाटा के लिए किसानों की ज़मीन अधिगृहीत की थी। उसी मार्क्सवादी पार्टी की सरकार ने, जिसने तेलंगाना में आज़ादी के बाद देश के सबसे गौरवशाली जनयुद्ध का नेतृत्व किया था और जो वाकई एक समय मजदूर-किसानों की एकमात्र पार्टी थी। आज अगर इस पार्टी के लोग आदिवासियों के डर से तेलंगाना, छत्तीसगढ़ के जंगलों में घुस नहीं पाते तो क्या आश्चर्य।
तीसरा है, हरियाणा के मुख्यमंत्री का अपने लग्गुओं-भग्गुओं के साथ साइकिल पर विधानसभा पहुँचना। यह कोई आश्चर्य नहीं, बहुत से बड़े नेता ऐसी नाटक-नौटंकी करते रहते हैं। वे सोचते हैं कि ऐसा करने से वे भी माणिक सरकार जैसे दिखाई देने लगेंगे लेकिन साथ में छपे चित्र में ही उनका चेहरा देखकर ज़ाहिर हो जाता है कि वे क्या हैं। आश्चर्य न करें कि वापसी में उनकी साइकिल रिक्शे पर चढ़कर बंगले पहुँचती है। जिप्सी या स्कॉर्पियो में क्यों नहीं जाती यह आश्चर्य है।
चौथा है, "विज्ञापनों से सजेंगे ट्रेन के डिब्बे"। ट्रेनों को ललचाती चीजों के विज्ञापनों से पाट देने की कवायत चल रही है। कहते हैं, ट्रेनों को पेंट करने का खर्च बचेगा और उल्टे रेलवे को 1 से 6 करोड़ प्रति ट्रेन के हिसाब से आमदनी भी होगी। देश में लगभग 20000 ट्रेनें रोज़ चलती हैं। बताइए, व्यापारियों का कितना घाटा होगा! रेल के लिए और देश के लिए उनका यह त्याग देखकर आपको आश्चर्य तो नहीं हो रहा है?
अंतिम है, तेलंगाना सरकार की 500 रुपए में जेल की सैर कराने की योजना। शीर्षक है "500 रुपए में एक दिन जेल के मज़े लो।" भारत की जनता को जेल जाने के लिए पैसे खर्च करने पड़ें, इससे बड़े आश्चर्य की क्या बात होगी।  
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Sunday, August 28, 2016

पवन करण की कविता

भाई
मेरे भाई की नाक एवरेस्ट से ऊंची
चांद से भी अधिक चमकीली
किसी से प्यार करूंगी तो कट जायेगी
अपनी कटी हुई नाक के साथ
मेरा भाई कैसे जियेगा
वह तो मर जायेगा जीते जी
उसकी आंख दूरबीन से तेज
निशाना गुलेल सा सटीक
मैं घने झुरमुट में भी किसी से मिलूंगी
वह देख लेगा, वह वहीं से
खीचकर मारेगा पत्थर
जो ठीक माथे पर लगेगा मेरे
उसके लगते ही
मेरे भाई का माथा हो जायेगा ऊंचा
कोई हाथ, हाथ में लेकर चलूंगी
गुस्से में उसके हाथ मेरी
और उसकी गर्दन मरोड़ देंगे
फैक देंगे किसी नाले में जाकर
कई दिन तक वह अपने
हाथ नहीं धोयेगा, दिखायेगा सबूत
खाप उसके हाथों को चूमेगी
जहां तक घूम सकता वह
घूमेगा छाती फुलाकर अपनी
कलदार सा खनकदार भाई का नाम
मगर वह कब तक काम आयेगा मेरे
प्रेम तो फिर भी रहेगा साथ
प्रेम के बिना मैं कैसे जियुंगी
प्रेम करूंगी तो जाउंगी मारी
पवन करण

उधार का गर्व

महान हिन्दुत्व का 1000 साल का इतिहास युद्ध में हार का और विजेता की नकल का इतिहास रहा है और आज भी इन्हें चैन नहीं है, बेशर्म, उसी राह पर चले जा रहे हैं। इतिहास और वर्तमान से कुछ उदाहरण पेश हैं।
1) भारत में पर्दा-प्रथा कभी नहीं रही। मुसलमानों की नकल पर हिंदुओं ने न सिर्फ औरतों को घर की चारदीवारी में बंद कर दिया बल्कि घूँघट, (तथाकथित) शर्म इत्यादि रिवाजों के द्वारा मुसलमानों के मूर्खतापूर्ण विचारों की नकल करके उनकी तरह खुद भी गौरवान्वित होते रहे।
2) हिंदुओं में कोई ऐसा धर्मग्रंथ नहीं था जिसे पवित्र, अंतिम माना जाए। इतना खुलापन था कि नए विचारों, नई किताबों के लिए जगह थी। कोई किसी को पवित्र मानता था तो कोई किसी दूसरी किताब को। मुसलमानों के प्रभाव में उन्हें भी एक किताब की ज़रूरत पड़ी तो कभी वेदों को तो कभी गीता को हिंदुओं की किताब बताया जाने लगा। गीता पर हाथ रखकर कसमें खिलवाई जाने लगीं जबकि गीता का अर्थ हिंदुओं के लिए वह नहीं है जो मुसलमानों के लिए कुरान का है।
3) जो भारत में पैदा हुआ वही हिन्दू है, ऐसी हिंदुओं की मूल मान्यता है इसलिए न तो कोई इस धर्म को छोड़ सकता है और न कोई दूसरा धर्म बदलकर हिन्दू हो सकता है। इसलिए हिंदुओं में धर्मांतरण की कोई संभावना नहीं है। इस्लाम में उनका धर्म अपना तो सकते हैं, छोड़ नहीं सकते। उनकी नकल पर अब तथाकथित 'घरवापसी' की जा रही है जो असफल होकर रहेगी। हिंदुओं के लिए बेहतर स्ट्रेटेजी यह हो सकती है कि वे मुसलमानों को भी हिन्दू ही मानें लेकिन कट्टरवादियों को मुसलमानों की नकल करके उसी पर गौरवान्वित होना है अतः संभव नहीं लगता।
4) इस्लाम आक्रामक धर्म है और हिन्दू धर्म हर तरह के धर्मों को खुद में समाहित करने वाला धर्म है। अगर इस्लाम तलवार है तो हिन्दू धर्म (वर्तमान अर्थों में हिन्दुत्व नहीं) दलदल है। आज वह इस्लाम की कट्टरता की नकल करना चाहता है अर्थात एक तरह से दूसरों के शस्त्रों से युद्ध करना चाहता है, जिसमें उनकी हार निश्चित है। देख ही रहे हैं।
(नोट: अपन को कोई फर्क नहीं पड़ता, भारत में हिन्दुत्व रहे या इस्लामियत, भाड़ में जाएँ दोनों। हाँ, हम जानते हैं कि यहाँ हिंदुस्तानियों को कोई नहीं मिटा सकता।)

एमिली डिकिन्सन की एक कविता

उधार घृणा करने के लिए मेरे पास वक़्त नहीं था: एमिली डिकिन्सन
घृणा करने के लिए मेरे पास वक़्त नहीं था
क्योंकि मौत हमेशा रास्ता रोक लेती थी
फिर जीवन भी इतना बड़ा नहीं था कि
इतने कम वक्त में दुश्मनी का खात्मा हो पाता

प्रेम के लिए भी मेरे पास वक़्त नहीं था
लेकिन ज़िंदा हैं, तो हाथ पैर तो हिलाने ही होंगे
सोचा, प्रेम के लिए थोड़ा बहुत पसीना बहा लें

एक जीवन में इतना ही कर पाना संभव था

दलित-मुसलमान एका

कुछ लोग दलित और मुसलमान शब्द का इस्तेमाल एक ही साँस में कर जाते हैं जैसे जाति और धर्म एक ही बात हों या दलित और मुसलमान एक ही वर्ग या वर्ण के हों या जैसे मुसलमानों में सभी दलित होते हों या न होते हों । कुछ कट्टरपंथी और अपोलोजेटिक मुसलमान पहले से इस एकता के लड्डू को ताक रहे थे लेकिन इस मकड़जाल में वामपंथियों का फँसना दुर्भाग्यपूर्ण है। बात यह है कि भारतीय समाज बहुत जटिल है और इसमें इस तरह के घपले ऐन मुमकिन हैं। लेकिन इसे समझने की ज़रूरत है, बल्कि इसका पर्दाफाश करने की ज़रूरत है। अपनी गरिमा स्थापित करने के लिए हिन्दू धर्म के भीतर ही दलितों का संघर्ष सैकड़ों सालों से चल रहा है जो उन्नीसवीं सदी में महात्मा फुले, पेरियार अतीत में हम ब्राह्मणों और दलितों का गठबंधन देख चुके हैं। पिछड़ों (यादवों, पटेलों) के साथ भी दलितों का गठबंधन देख चुके हैं। ये सभी जातीय गठबंधन थे और उनमें जटिलताएँ कम थीं फिर भी वे असफल रहे। दलित जातियों में अपने साथी खोज रहे थे जबकि एकता वर्गों की हो सकती है, जातियों की नहीं क्योंकि हितों का जब सवाल आता है तो सामाजिक हितों के साथ आर्थिक हित भी बहुत महत्वपूर्ण होते हैं, बल्कि आर्थिक हित सामाजिक हितों से भी ज़्यादा महत्वपूर्ण होते हैं। तो पिछड़ों में वे अपना वर्ग ही ढूँढ़ रहे थे मगर वह उन्हें नहीं मिला। सामाजिक और आर्थिक रूप से दलित असल में कुछ ज़्यादा ही नीचे थे। इस बीच मुसलमान कभी ब्राह्मणों के साथ तो कभी पिछड़ों के साथ खड़े होते रहे लेकिन उनका अपना कोई स्वतःस्फूर्त संघर्ष नहीं है। इस्लाम में धर्म की आलोचना संभव नहीं है अर्थात न तो मुसलमान शरीया पर प्रश्न उठा सकते हैं, न ही हदीस पर अपना पक्ष रख सकते हैं। कुरान की आलोचना तो बहुत दूर की बात है। गाय के मामले में हिन्दू दलितों को मुसलमानों का समर्थन मिल सकता है मगर सूअर के मामले में नहीं।   
कुछ लोग दलित और मुसलमान शब्द का इस्तेमाल एक ही साँस में कर जाते हैं जैसे जाति और धर्म एक ही बात हों या दलित और मुसलमान एक ही वर्ग या वर्ण के हों या जैसे मुसलमानों में दलित होते ही न हों। कुछ कट्टरपंथी और अपोलोजेटिक मुसलमान पहले से इस एकता के लड्डू को ताक रहे थे लेकिन इस मकड़जाल में वामपंथियों का फँसना दुर्भाग्यपूर्ण है। बात यह है कि भारतीय समाज बहुत जटिल है और इसमें इस तरह के घपले ऐन मुमकिन हैं। लेकिन इसे समझने की ज़रूरत है, बल्कि इसका पर्दाफाश करने की ज़रूरत है। अपनी गरिमा स्थापित करने के लिए हिन्दू धर्म के भीतर ही दलितों का संघर्ष सैकड़ों सालों से चल रहा है जिसे उन्नीसवीं सदी में महात्मा फुले, पेरियार, आदि के सामाजिक आंदोलनों ने असली धार प्रदान की और बाद में अंबेकर और काशीराम ने उसे सत्ता प्राप्ति के राजनैतिक हथियार में बदल दिया। वास्तव में संघर्ष की यह लंबी यात्रा किसी गौरवगाथा से कम नहीं लेकिन अभी भी दलित न तो पूरी तरह मुक्त हुए हैं और न ही उन्हें संपूर्ण सामाजिक और राजनैतिक प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं हुई है। उनका संघर्ष जारी है, बल्कि और तीव्र हुआ है। जातियों में बँटे हुए और भौगोलिक रूप से बिखरे हुए होने के कारण सत्ता में अपना हिस्सा पाने के लिए उन्हें किसी न किसी के साथ गठजोड़ करना ही पड़ता है। अतीत में हम ब्राह्मणों और दलितों का गठबंधन देख चुके हैं। पिछड़ों (यादवों, पटेलों) के साथ भी लंबे समय तक दलितों का गठबंधन रहा है। ये सभी जातीय गठबंधन थे और उनमें जटिलताएँ कम थीं फिर भी वे असफल रहे। दलित जातियों में अपने साथी खोज रहे थे जबकि एकता वर्गों की हो सकती है, जातियों की नहीं क्योंकि हितों का जब सवाल आता है तो सामाजिक हितों के साथ आर्थिक हित भी महत्वपूर्ण होते हैं, बल्कि आर्थिक हित सामाजिक हितों से भी ज़्यादा मानी रखते हैं। तो पिछड़ों में वे अपना वर्ग ही ढूँढ़ रहे थे मगर वह उन्हें नहीं मिला-सामाजिक और आर्थिक रूप से दलित असल में कुछ ज़्यादा ही नीचे थे। इस बीच सभी मुसलमान कभी ब्राह्मणों के साथ तो कभी पिछड़ों के साथ खड़े होते रहे हैं लेकिन दुर्भाग्य से उनका अपना कोई स्वतःस्फूर्त संघर्ष नहीं हैदेखा जाए तो मुसलमानों की उच्च जातियाँ हिन्दू क्षत्रिय और हिन्दू कायस्थ जातियों के साथ सदियों से अच्छे संबंध बनाकर रखती रही हैं और उच्च जातियों के मुसलमानों को हिंदुओं की ऊंची जातियों के साथ गठबंधन करने में कोई विशेष असुविधा नहीं रही है। जिस तरह हिन्दू दलितों को गरीब, जाहिल और सामाजिक रूप से कमजोर बनाए रखा गया उसी तरह मुसलमान दलित भी, जोकि पूर्व में दरअसल हिन्दू दलित ही थे, धर्म के नाम पर अपढ़, गरीब और जाहिल बनाए रखा गया। इस मामले में सामाजिक प्रतिष्ठा और आर्थिक दृष्टिकोण से हिन्दू और मुसलमान दलितों की स्थिति में कोई अंतर नहीं है। दिक्कत यह है कि इस्लाम में धर्म की आलोचना संभव नहीं है अर्थात न तो मुसलमान शरीया पर प्रश्न उठा सकते हैं, न ही हदीस पर अपना पक्ष रख सकते हैं। कुरान की आलोचना तो बहुत दूर की बात है। दुर्भाग्य से उनमें अंबेकर जैसा कोई नेता भी पैदा नहीं हो पाया जो धार्मिक ठेकेदारों के षड़यंत्रों का पर्दाफाश कर सके।
कहने का अर्थ यह कि सभी दलितों का और वर्तमान संदर्भ में हिन्दू और मुसलमान दलितों का एका एक नैसर्गिक बात होगी लेकिन सभी मुसलमानों के साथ दलितों का एका वैसा ही क्षणभंगुर साबित होगा जैसे पहले ब्राह्मण-दलित और पिछड़ा-दलित एका साबित हुआ था। अंततः अवाम की एकता में उनकी आर्थिक स्थिति ही महत्वपूर्ण होती है और मुसलमान दलित जब तक अपने सामंती और धार्मिक ठेकेदारों के चंगुल से मुक्त नहीं होने की कोशिश नहीं करते तब तक यह एका एक असमान और अवसरवादी एका ही कहा जाएगा। इसके अलावा इस एकता से हिन्दू दलित तो लाभ उठा लेंगे लेकिन मुसलमान दलितों की स्थिति में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। सत्ता में अगर इस गठबंधन को हिस्सेदारी प्राप्त होती भी है तो हिन्दू दलितों को तो अपना हिस्सा मिल जाएगा लेकिन मुसलमानों के हिस्से में से उनके सामंती और धार्मिक खैरख़्वाह सारा हिस्सा मार लेंगे।    

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