कुछ लोग दलित और मुसलमान शब्द का इस्तेमाल एक
ही साँस में कर जाते हैं जैसे जाति और धर्म एक ही बात हों या दलित और मुसलमान एक
ही वर्ग या वर्ण के हों या जैसे मुसलमानों में सभी दलित होते हों या न होते हों । कुछ कट्टरपंथी और अपोलोजेटिक मुसलमान
पहले से इस एकता के लड्डू को ताक रहे थे लेकिन इस मकड़जाल में वामपंथियों का फँसना
दुर्भाग्यपूर्ण है। बात यह है कि भारतीय समाज बहुत जटिल है और इसमें इस तरह के
घपले ऐन मुमकिन हैं। लेकिन इसे समझने की ज़रूरत है, बल्कि इसका पर्दाफाश करने की ज़रूरत है। अपनी गरिमा स्थापित करने के
लिए हिन्दू धर्म के भीतर ही दलितों का संघर्ष सैकड़ों सालों से चल रहा है जो
उन्नीसवीं सदी में महात्मा फुले, पेरियार अतीत में हम ब्राह्मणों और दलितों का गठबंधन देख चुके हैं। पिछड़ों
(यादवों, पटेलों) के साथ भी दलितों का गठबंधन
देख चुके हैं। ये सभी जातीय गठबंधन थे और उनमें जटिलताएँ कम थीं फिर भी वे असफल
रहे। दलित जातियों में अपने साथी खोज रहे थे जबकि एकता वर्गों की हो सकती है, जातियों की नहीं क्योंकि हितों का जब
सवाल आता है तो सामाजिक हितों के साथ आर्थिक हित भी बहुत महत्वपूर्ण होते हैं, बल्कि आर्थिक हित सामाजिक हितों से भी
ज़्यादा महत्वपूर्ण होते हैं। तो पिछड़ों में वे अपना वर्ग ही ढूँढ़ रहे थे मगर वह
उन्हें नहीं मिला। सामाजिक और आर्थिक रूप से दलित असल में कुछ ज़्यादा ही नीचे थे।
इस बीच मुसलमान कभी ब्राह्मणों के साथ तो कभी पिछड़ों के साथ खड़े होते रहे लेकिन
उनका अपना कोई स्वतःस्फूर्त संघर्ष नहीं है। इस्लाम में धर्म की आलोचना संभव नहीं
है अर्थात न तो मुसलमान शरीया पर प्रश्न उठा सकते हैं, न ही हदीस पर अपना पक्ष रख सकते हैं।
कुरान की आलोचना तो बहुत दूर की बात है। गाय के मामले में हिन्दू दलितों को
मुसलमानों का समर्थन मिल सकता है मगर सूअर के मामले में नहीं।
कुछ लोग दलित और मुसलमान शब्द का इस्तेमाल एक
ही साँस में कर जाते हैं जैसे जाति और धर्म एक ही बात हों या दलित और मुसलमान एक
ही वर्ग या वर्ण के हों या जैसे मुसलमानों में दलित होते ही न हों। कुछ कट्टरपंथी
और अपोलोजेटिक मुसलमान पहले से इस एकता के लड्डू को ताक रहे थे लेकिन इस मकड़जाल
में वामपंथियों का फँसना दुर्भाग्यपूर्ण है। बात यह है कि भारतीय समाज बहुत जटिल
है और इसमें इस तरह के घपले ऐन मुमकिन हैं। लेकिन इसे समझने की ज़रूरत है, बल्कि इसका पर्दाफाश करने की ज़रूरत है।
अपनी गरिमा स्थापित करने के लिए हिन्दू धर्म के भीतर ही दलितों का संघर्ष सैकड़ों
सालों से चल रहा है जिसे उन्नीसवीं सदी में महात्मा फुले, पेरियार, आदि के सामाजिक आंदोलनों ने असली धार
प्रदान की और बाद में अंबेड़कर और काशीराम ने उसे सत्ता प्राप्ति के राजनैतिक हथियार में बदल दिया। वास्तव में संघर्ष की
यह लंबी यात्रा किसी गौरवगाथा से कम नहीं लेकिन अभी भी दलित न तो पूरी तरह
मुक्त हुए हैं और न ही उन्हें संपूर्ण सामाजिक और राजनैतिक प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं हुई है। उनका संघर्ष जारी है, बल्कि और तीव्र हुआ है। जातियों में
बँटे हुए और भौगोलिक रूप से बिखरे हुए होने के कारण सत्ता में अपना हिस्सा पाने के
लिए उन्हें किसी न किसी के साथ गठजोड़ करना ही पड़ता है। अतीत में हम ब्राह्मणों और
दलितों का गठबंधन देख चुके हैं। पिछड़ों (यादवों, पटेलों) के साथ भी लंबे समय तक दलितों का गठबंधन रहा है। ये सभी जातीय गठबंधन थे और उनमें
जटिलताएँ कम थीं फिर भी वे असफल रहे। दलित जातियों में अपने साथी खोज रहे थे जबकि
एकता वर्गों की हो सकती है, जातियों की नहीं क्योंकि हितों का जब सवाल आता है तो सामाजिक हितों के
साथ आर्थिक हित भी महत्वपूर्ण
होते हैं,
बल्कि
आर्थिक
हित सामाजिक हितों से भी ज़्यादा मानी रखते हैं। तो पिछड़ों में वे अपना वर्ग ही ढूँढ़
रहे थे मगर वह उन्हें नहीं मिला-सामाजिक और आर्थिक रूप से दलित असल में कुछ ज़्यादा
ही नीचे थे। इस बीच सभी मुसलमान कभी ब्राह्मणों के साथ तो कभी पिछड़ों के साथ खड़े होते रहे हैं लेकिन दुर्भाग्य से उनका अपना कोई स्वतःस्फूर्त संघर्ष
नहीं है। देखा जाए तो मुसलमानों
की उच्च जातियाँ हिन्दू क्षत्रिय और हिन्दू कायस्थ जातियों के साथ सदियों से अच्छे
संबंध बनाकर रखती रही हैं और उच्च जातियों के मुसलमानों को हिंदुओं की ऊंची
जातियों के साथ गठबंधन करने में कोई विशेष असुविधा नहीं रही है। जिस तरह हिन्दू
दलितों को गरीब, जाहिल और सामाजिक
रूप से कमजोर बनाए रखा गया उसी तरह मुसलमान दलित भी, जोकि पूर्व में दरअसल
हिन्दू दलित ही थे, धर्म के नाम पर अपढ़, गरीब और जाहिल बनाए रखा गया। इस मामले में सामाजिक
प्रतिष्ठा और आर्थिक दृष्टिकोण से हिन्दू और मुसलमान दलितों की स्थिति में कोई अंतर नहीं है। दिक्कत यह है कि इस्लाम में धर्म की आलोचना संभव नहीं
है अर्थात न तो मुसलमान शरीया पर प्रश्न उठा सकते हैं, न ही हदीस पर अपना पक्ष रख सकते हैं।
कुरान की आलोचना तो बहुत दूर की बात है। दुर्भाग्य से उनमें अंबेड़कर जैसा कोई नेता भी पैदा नहीं हो पाया जो
धार्मिक ठेकेदारों के षड़यंत्रों का
पर्दाफाश कर सके।
कहने का अर्थ यह कि सभी दलितों का और
वर्तमान संदर्भ में हिन्दू और मुसलमान दलितों का एका एक नैसर्गिक बात होगी लेकिन
सभी मुसलमानों के साथ दलितों का एका वैसा ही क्षणभंगुर साबित होगा जैसे पहले
ब्राह्मण-दलित और पिछड़ा-दलित एका साबित हुआ था। अंततः अवाम की एकता में उनकी आर्थिक स्थिति ही
महत्वपूर्ण होती है और मुसलमान दलित जब तक अपने सामंती और धार्मिक ठेकेदारों के चंगुल से मुक्त
नहीं होने की कोशिश नहीं करते तब तक यह एका एक असमान और अवसरवादी एका ही कहा जाएगा। इसके
अलावा इस एकता से हिन्दू दलित तो लाभ उठा लेंगे लेकिन मुसलमान दलितों की स्थिति
में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। सत्ता में अगर इस गठबंधन को हिस्सेदारी प्राप्त होती भी है तो हिन्दू
दलितों को तो अपना हिस्सा मिल जाएगा लेकिन मुसलमानों के हिस्से में से उनके सामंती
और धार्मिक खैरख़्वाह सारा हिस्सा मार लेंगे।
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