क्रिकेट दूसरे सभी खेलों से सिर्फ अलग ही नहीं बल्कि कई बार
लगता था कि वह खेल ही नहीं है, कोई और ही चीज़ है। कई विद्वान
उसकी जटिलता में उलझे, उसकी साधारण सी लगने वाली बातों के
गूढ़ार्थों को समझने की कोशिश की पर कुछ न समझ पाने पर थक-हारकर बैठ गए। यहाँ तककि
उसका नाम भी तर्कहीन लगता था। झींगुर, जिसे एक छोटे से इलाके में
क्रिकेट कहा जाता था, किसी खेल का नाम हो सकता है, यह बात उस समय भी किसी के गले नहीं उतरती
थी। काफी समय भाषाविद और इतिहासकार उसके नाम को लेकर माथापच्ची करते रहे पर कुछ
पता नहीं चल पाया। कठिन प्रश्न था कि जिसने भी सबसे पहले इस खेल को 'क्रिकेट' कहा, उसके अवचेतन में क्या बातें चल
रही थीं? क्या उसने इस शोधपत्र में वर्णित सारी
घटनाएँ, अवचेतन में ही सही, देखी थीं? क्या उसे क्रिकेट के खेल में
झींगुरों की अकाट्य भूमिका के बारे में मालूम था? दरअसल, उस वक़्त उनके जीवन और सोच के मुक़ाबले समय
बहुत विशाल था। कई बातें दिखती तो थीं पर दिखते ही तुरंत विलुप्त हो जाती थीं, जैसे दिखी ही न हों। कुछ बातें इतनी तेज़
गति से घटित होती थीं कि बातों का अंतिम परिणाम ही दिखाई पड़ पाता था। हर बात में
तर्क ढूँढ़ने का चलन था और जहाँ बातें तर्कहीन और अस्पष्ट होतीं, वहाँ उन्हें विभ्रम, दिवास्वप्न या मिथ्या-स्मृति मान लिया
जाता था। पर स्पष्ट ही, इस नामकरण के पीछे भी कोई न कोई तर्क ज़रूर
रहा होगा, जो शायद रफ्तार और विशालता में गुम हो गया
था।
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