और ऐसे समय में क्रिकेट को उसकी उत्कृष्टता, परिष्कृतता और
अनुपमता के कारण महाकुंभ के लिए सर्वथा उपयुक्त पाया गया। वह एक संभ्रांत खेल माना
जाता था और उसमें नियमों के साधारण उल्लंघन की बात सोची भी नहीं जाती थी। वह बहुआयामी
और पर्तदार था और उसमें हर तरह की संस्कृतियों में भीतर तक समा जाने की अद्भुत खूबियाँ
थीं। आध्यात्मिक महाभूमियों के लिए उसमें जीवन की क्षणभंगुरता से लेकर अकेले आने और
जाने की विवशता, मृत्यु की आकस्मिकता, दूसरों
के और अपने कर्मों के संयुक्त परिणाम के रूप में भाग्यभ्रम और अनहोनी थी। रूखे, आक्रामक, क्रूर और सख्तजान लोगों के लिए वहाँ गोल शीलाखंड
की तरह सख्त गेंद थी, जिसे सिर्फ बीस गज़ की दूरी पर खड़े विपक्षी
की तरफ पूरी ताकत के साथ लहराया जाता था। उसे बुरी तरह से आतंकित और लहूलुहान करने
के लिए गेंद के भीतर बार-बार बदलती दिशा, बेढंगी उछाल, भीषण रफ्तार और एक रहस्यमय सनसनाहट भर दी जाती थी। हर हाल में दूसरों पर विजय
पाने के आदी, अमीर और षड्यंत्रकारी रहन-सहन वालों के लिए उसमें
बहुत सारी संभावनापूर्ण युक्तियाँ थीं, जिन्हें खेल शुरू होने
से पहले ही कपटपूर्वक मैदान की हवा में स्थापित कर दिया जाता था। ये युक्तियाँ एक साथ
ही मनोवैज्ञानिक, आतंककारी, मासूम, मनोरंजक, दोस्ताना और निर्दयी होती थीं और विपक्षी खिलाड़ियों
के विश्वास को भ्रमित, गलित और कुंठित करती रहती थीं। (क्रमशः)
Tuesday, February 3, 2015
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