द सेवन्थ कोंटिनेंट
हानेके ने अपने एक इंटरव्यू में कहा है कि उनकी फिल्में ऐसी हैं, जिन्हें बनाना आसान है लेकिन देखना कठिन। “मैं सेट पर हँसी-मज़ाक करता रहता हूँ, निर्माण प्रक्रिया के साथ बहुत अंतरंग नहीं होता और माहौल को हल्का-फुल्का बनाए रखता हूँ।... मैं अपेक्षा करता हूँ कि फिल्म निर्माण के दौरान सभी कलाकार उसके सृजन का आनंद लेंगे लेकिन (चाहता हूँ कि) देखने वाले उनसे विचलित हों, ठगा-सा महसूस करें, यहाँ तककि बहुत अवसादग्रस्त हो जाएँ।” वे लंबे-लंबे मामूली रूटीन दृश्यों से ऐसे आतंक का माहौल रचते हैं कि दर्शक चाहता है, जल्द से जल्द दृश्य समाप्त हो जाए मगर पल भर के लिए भी स्क्रीन से आँख नहीं हटा पाता।
सरसरी तौर पर फिल्म ‘द सेवन्थ कोंटिनेंट’ पति, पत्नी और एक मासूम सी बेटी वाले बहुत सुखी परिवार की कहानी लग सकती है मगर सब कुछ उपलब्ध होने के बावजूद वे सभी एक बेहद नीरस जीवन जी रहे हैं। फिल्म की शुरुआत ही एक घुटन भरे, बोझिल दृश्य से शुरू होती है, जिसमें एक अंधेरे गैराज में कार धुल रही है और परिवार के तीनों सदस्य कार के अंदर बंद हैं। यह दृश्य साढ़े तीन-चार मिनट लंबा है और पहले कार पर तेज़ पानी की बौछार, फिर बड़े से पोछे (मॉप) से उसे साफ किए जाने का दृश्य विस्तार से फिल्माया गया है जबकि अंदर बंद तीनों पात्र अपने भावहीन चेहरे लिए चुपचाप बैठे हैं जोकि इंतज़ार के ऐसे मौकों पर सामान्य ही कहा जाएगा। मगर भूमिका के रूप में दृश्य अपना काम कर जाता है। और जब कार गैराज से बाहर निकलती है तो पूरे स्क्रीन पर आस्ट्रेलिया के उन्मुक्त समुद्री किनारे का दृश्य दिखाई देता है।
फिल्म तीन हिस्सों में विभक्त है, जिनमें 1987, 1988 और 1989 के कुछ दिनों की दिनचर्या को फिल्माया गया है। पहले दो हिस्सों में पात्रों का सामान्य रूटीन है, जिसमें नायिका को नाश्ता बनाते, बेटी को सुलाते, बाज़ार से ख़रीदारी करते दिखाया गया है। नायक अपने कार्यालय में और बेटी स्कूल में व्यस्त है। सभी अपने-अपने काम निपटाते हुए अपने कामों से बेहद असंपृक्त नज़र आते हैं। यहाँ तककि परेशान होने पर परेशानी के या खुश होने पर खुशी के भाव भी उनके चेहरों पर परिलक्षित नहीं होते। पात्रों के चेहरे ही बहुत कम दिखाए गए हैं (पता नहीं, अभिनेताओं ने इसे कैसे स्वीकार किया होगा क्योंकि उनके लिए अभिनय की गुंजाइश ही फिल्म में बहुत कम है) और खाना बनाते या खाते हुए हाथों की मुद्राएँ और बर्तनों की आवाज़ भर हैं। इसी तरह जूते के फीते बांधते समय, दुकानों में ख़रीदारी करते समय या आँखों की जाँच कराते समय लंबे-लंबे दृश्यों में क्रमशः जूते, बिलिंग मशीन या आँखों की पुतलियाँ हैं, चेहरे कहीं नज़र नहीं आते।
सामान्य रूप से पात्र अपनी छोटी-मोटी समस्याओं से जूझते और कहीं-कहीं उनसे सफलता पूर्वक पार पाते भी नज़र आते हैं। नायक अपने काम में व्यस्त रहता है इसलिए नायिका अपने ससुर को चिट्ठियाँ लिखती है, जिनमें इन्हीं मामूली बातों, जैसे नायक के ऑफिस की राजनीति, अपने भाई की समस्याएँ, बेटी की बीमारी आदि का ठंडा, गंभीर और विस्तृत वर्णन है। फिल्म के पहले दो हिस्सों में इन घिसी-पिटी दिनचर्या के दृश्यों के बाद अंतिम हिस्से में परिवार को अपने माता-पिता के यहाँ से वापस लौटते दिखाया गया है। घर आते ही नायक पहली बार अपने पिता को पत्र लिखता है, जिसमें वह देश छोडकर आस्ट्रेलिया में बसने के अपने इरादे को स्पष्ट करता है।
हालांकि यह तीसरा हिस्सा ही सबसे अधिक रोमांचक (और खौफनाक) है लेकिन इससे अधिक बताने पर फिल्म की उत्सुकता समाप्त हो सकती है इसलिए फिल्म का विवरण यहीं तक।
और हाँ, हानेके की फिल्मों में मीडिया पर कोई टिप्पणी न हो ऐसा हो ही नहीं सकता। इस फिल्म में भी कई बार रेडियो पर ईराक-ईरान युद्ध, गोर्बाचेव आदि के समाचार चल रहे होते हैं और फिल्म चित्रविहीन टीवी के चींटियों के झुंड और खरखराहट वाले लंबे दृश्य के साथ समाप्त होती है।
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