**हृदय के लिए जीवन बड़ा सहज-सरल है: जब तक उसमें क्षमता है, वह धड़कता रहता है। फिर रुक जाता है। अभी या कुछ दिन बाद, कभी न कभी हृदय की यह धमक अपने आप बंद हो जाती है और क्योंकि तापमान गिर रहा है, अंग-प्रत्यंग अकड़ रहे हैं और आँतें सूख रही हैं, रक्त शरीर के सबसे निचले बिन्दु की ओर दौड़ने लगता है, जहाँ वह एक कुंड में जमा होता जाता है और सफ़ेद त्वचा पर काले, नाज़ुक से धब्बे जैसा दिखाई देता है। पहले कुछ घंटों में ये परिवर्तन इतना धीरे-धीरे और इतनी शास्त्रीय निष्ठुरता के साथ होते हैं जैसे कोई अनुष्ठान चल रहा हो, जैसे कुछ स्पष्ट नियमों या सभ्य व्यक्तियों के बीच हुए करार की तरह जीवन को मृत्यु के प्रतिनिधियों के सम्मुख आत्मसमर्पण करना हो क्योंकि जब तक जीवन अपनी हार मानकर पीछे हटना शुरू नहीं करता मृत्यु के प्रतिनिधि हमेशा रुके रहते हैं और उसके बाद ही उस नए इलाके पर धावा बोलते हैं। लेकिन इस बिन्दु पर आकर हमला और उसका नतीजा अटल है। बैक्टीरिया के विशालकाय झुंड शरीर के विभिन्न हिस्सों में बेरोकटोक प्रवेश कर जाते हैं। कुछ समय पहले वे कोशिश करते तो उन्हें तत्काल प्रतिरोध का सामना करना पड़ता लेकिन अब हर तरफ शांति है और वे मज़े में शरीर के भीतरी हिस्सों के गहरे, नम अंधकार में प्रवेश कर सकते हैं। ... जीवन जैसे ही शरीर को छोड़ता है उसी पल उस पर मृत्यु का अधिकार हो जाता है। वह लैंप, सूटकेस, दरी, हैंडल, खिड़की जैसा हो जाता है। या खेत, दलदल, झरने, पहाड़, बादल, आकाश। इनमें से कोई भी चीज़ हमारे लिए अजूबा नहीं है। मृत्यु के अधिकार-क्षेत्र की ये सभी वस्तुएँ, तथ्य और प्रक्रियाएँ हर समय हमारे आसपास होती हैं, होती रहती हैं। फिर भी इनमें से कोई भी चीज़ मृत्यु के कब्जे में आ चुके शरीर जैसी अरुचि पैदा नहीं करती, कम से कम, जिस तरह हम लाश को अपनी दृष्टि से दूर रखने की जीतोड़ कोशिश करते हैं, उससे यही सिद्ध होता है।...वह शहर जो अपने मृतकों को लोगों की नज़रों से दूर नहीं रखता, जो मरे हुए लोगों को वहीं छोड़ देता है, जहाँ उनकी मृत्यु हुई थी, सड़कों-गलियों में, पार्कों में या पार्किंग-स्थलों में, वह शहर शहर नहीं नर्क है। यहाँ इस बात का कोई महत्व नहीं है कि यह नर्क हमारे जीवन का यथार्थ है और निश्चय की उसे अधिक सत्यता के साथ प्रतिबिम्बित करता है। हम जानते हैं कि यही सच है लेकिन उसका सामना नहीं करना चाहते। इसी का नतीजा है स्वयं का यह सामूहिक दमन जो अपने मृतकों को पर्दे में रखने की संगठित कार्यवाही में परिलक्षित होता है।...लेकिन यह बता पाना सरल नहीं है कि आखिर किस चीज़ का दमन किया जा रहा है। निश्चय ही वह मृत्यु नहीं हो सकती क्योंकि समाज में उसकी उपस्थिति निरंतर और सुस्पष्ट है। अखबारों में प्रकाशित और टीवी समाचारों में प्रदर्शित प्रतिदिन मरने वालों की संख्या में थोड़ा-बहुत अंतर हो सकता है मगर वार्षिक औसत निकालेंगे तो वह हर साल के लिए लगभग समान होगा और क्योंकि मृत्यु के कारण इतनी ज़्यादा विविधता लिए हुए होते हैं कि उन्हें टालना लगभग असंभव है। लेकिन इस तरह की मृत्यु आपके अंदर कोई डर पैदा नहीं करती। इसके विपरीत, हम उसे आँख गड़ाकर देखते हैं, उन्हें देखने के लिए खुशी-खुशी पैसे खर्च करते हैं। अगर कथा-कहानियों में होने वाली मौतों को इनमें जोड़ लें तो उस सामाजिक व्यवस्था को समझ पाना और भी मुश्किल होगा जो वास्तविक जीवन में मृत्यु को इतना छिपाकर रखना आवश्यक समझती है। ...**
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