Friday, January 16, 2015

हिन्दू त्योहारों पर एक लम्बा नोट

पहली बात तो यह नोट करें कि अधिकांश हिन्दू त्यौहार हर तरह का प्रदूषण जैसे शोर, विषैली गैसें, जहरीले रसायन, धार्मिक, सांस्कृतिक, आदि आदि फैलाते हैं। दूसरे, सभी त्योहार इतने महंगे हैं कि गरीब उनसे अक्सर कोसों दूर रहता है अर्थात ये त्योहार मुख्यतः अमीरों के, दबंगों और उच्च जातियों के लिए हैं और स्वाभाविक ही भेदभाव से परिपूर्ण हैं। तीसरे, त्योहार इतने अधिक हैं और कई तो 10-10 दिन मनाए जाते हैं कि वे समय का दुरुपयोग लगते हैं। इसलिए इन बातों को छोड़कर अपने व्यक्तिगत अनुभव नीचे लिख रहा हूँ। यानी उपरोक्त बुराइयाँ तो मौजूद हैं ही।
1) लगभग 10/12 साल की उम्र में हम लोग रायपुर में सरकारी अफसरों की कालोनी सिविल लाइंस में रहा करते थे। दीवाली पर सबके घरों में कम से कम 100/200 के फटाखे अवश्य आते थे और हमारे यहाँ 10 रुपए के, वह भी बड़ी मुश्किल से। हम तीनों भाई अपने फटाखे जलाते ही नहीं थे और दूसरों के घरों में जाकर उनके जलते फटाखों से पूरा मज़ा ले लेते थे। माँ अच्छी ख़ासी पढ़ी लिखी थीं और उन्हें उज्र नहीं होता था क्योंकि वे कहती थीं कि फटाखों में आग लगाना रुपयों में आग लगाने जैसा ही है। इसमें खतरा भी है। आखिर कई बार हमारे फटाखे अगले साल के लिए बच भी जाते थे। बाद में तो हम खुद ही फटाखे खरीदने से इंकार कर देते थे। स्वाभाविक ही यह त्योहार सिर्फ और सिर्फ अमीरों का त्योहार है। गरीबों के लिए तो यह अंधकार का त्योहार है।
2) बाद में जब मैं ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ता था, हम इंदौर से 80 किलोमीटर दूर एक गाँव में रहे और एक बार गणपति विसर्जन की झांकियाँ देखने एक दोस्त के रिश्तेदार के यहाँ इंदौर आए। जवाहर मार्ग स्थित एक मकान की चौथी मंज़िल की छत पर चढ़कर हमने नीचे सड़क पर गुजरती झाँकियाँ देखीं। अखाड़ों, जुलूस, भीड़-भाड़ और शोर के बीच ट्रकों पर लदी झाँकियाँ रात भर निकलती रहीं और मुझे नींद आती रही। कई बार झगड़े भी होते रहे, बार बार ऊपर लटकते बिजली के तारों को बांस की सहायता से ठेलना पड़ता था। समझ में नहीं आता था कि इस तमाशे को देखने की इतनी दीवानगी का राज़ क्या है। बाद के सालों में यह और बढ़ा और मुझे इस त्योहार से लगभग नफरत सी हो गई।
3) दुर्गा पूजा का भी यही हाल था। दबंग चन्दा लेने आते और कहते आपसे तो 20 रुपए लेंगे (पिताजी भी अच्छे-खासे अफसर थे, मगर थे गरीब ही, गरीब क्यों थे, बताना बेकार है)। कम चन्दा देने पर दबंगों के चेहरे की हिकारत को तब से ही मैं अच्छी तरह पहचान चुका था। बाद में तो कई बार उनकी बदतमीजियां भी झेलनी पड़ी हैं। ये दोनों त्योहार 10 दिन मनाए जाते हैं (समय का इतना अपव्यय!) और इन दस दिनों में मुझ पर उदासी तारी हो जाती थी और अब भी होती है। दस दिन बाद रावण जलाने के लिए लोग दशहरा मैदान जाते थे। पाँच मिनट में खेल खत्म हो जाता था मगर उसके पहले किसी नेता या मिनिस्टर के इंतज़ार में भीड़ में पिसते खड़े रहना मुझे कभी अच्छा नहीं लगा। दूसरे दिन उन लोगों के यहाँ भी सोना देने जाना पड़ता था जिनसे हमारा कोई वास्ता भी नहीं होता था। वहाँ मिठाई और आशीर्वाद मिलते थे, जो अपनी अति और बड़प्पन के दिखावे के कारण मुझे व्यर्थ प्रतीत होते थे। उसके बाद विसर्जन आसपास के किसी ताल या नदी में होता था। इन तालाबों या नदियों की दुर्दशा पर साल भर आँसू बहाने वाले धार्मिक, समझदार नागरिक जिस निर्दयता के साथ नदियों को प्रदूषित करते थे यह देखकर उनके पाखंड पर अचंभित रह जाना पड़ता था। इसके अलावा दरअसल ये त्योहार सारे खेल-कूद और धमाचौकड़ियाँ बंद कर देते थे और इतने विशाल और अराजक होते थे कि व्यक्ति उनमें गुम हो जाता था।
4) बहुत दिनों तक होली का त्योहार मुझे पसंद आता रहा। भांग, गाँजा, शराब और गुलाल की मस्ती में हम भी खूब डूबे-उतराए, उसे जनवादी भी माना क्योंकि कम खर्च में इसका आनंद उठाया जा सकता था और तब इतनी ही समझ थी। मगर फिर लगा कि इसमें जनवाद कहाँ है? जब उन्हीं के साथ होली खेलना है जिनके यहाँ जाकर दीवाली पर फटाखे जलाए, मिठाइयाँ खाईं तो फिर काहे का जनवाद। गरीब अमीर को उस तरह गुलाल नहीं लगा सकता जिससे वर्जना टूटने का एहसास हो, वह बड़े आदर के साथ माथे पर लगाएगा, पैर भी छूएगा। मगर कोई अफसर या अमीर या कोई दबंग किसी चपरासी को या गरीब को गुलाल लगा दे या रंग डाल दे तो उसे अपना अहोभाग्य समझना चाहिए। 25-30 साल पहले भोपाल में (दूसरी जगहों पर भी) मुस्लिम भी दिल खोलकर होली खेलते थे, मगर अब यह लगभग समाप्त हो चुका है। कई बार झगड़े-लड़ाइयाँ भी हो जाती हैं। होली का चन्दा न देने पर आपके घर की दीवारों को कीचड़ में सान दिया जाए तो त्योहार समझकर चुप रहिए। जब गाँव में था तब देखा कि सभी दबंग मर्द अपनी वर्जनाएँ तोड़कर गरीब आदिवासी महिलाओं के साथ ज़ोर ज़बरदस्ती होली खेलते हैं। जब कि उनके घरों में महिलाएं आपस में ही होली खेलती रहती हैं, उन्हें अपनी वर्जना तोड़ने की कोई आज़ादी नहीं होती।  एक बार एक जगह एक चंचल लड़की ने किसी लड़के पर रंग डाल दिया तब लड़कों ने मिलकर उसकी जो गत बनाई उसे मैं भूल नहीं सकता। पहले तो उसके भाई लड़ने आ गए मगर क्या कर सकते थे, होली है। बाद में घर पर लड़की की जमकर धुलाई भी की गई। यह तो है वर्जनाएं टूटने का मिथक।       

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