डायरी
मैं लिखता क्यों हूँ?
मैं अपनी ख़ुशी के लिए लिखता हूँ. मुझे मज़ा आता है इसीलिए लिखता हूँ. ऐसा नहीं है की मेरी कोई सामाजिक प्रतिबद्धता नहीं है. मगर मैं उसके लिए कहानी या कविता नहीं लिख पाता. अगर लिख पाता होता तो अब तक बहुत सारा लिख चुका होता. सामाजिक प्रतिबद्धता के लिए लेख लिखना चाहता हूँ, लिखे भी हैं. कहानी उसके लिए नहीं लिख सकता.
लिखने को लेकर मै तुलसीदास का हामी हूँ कि स्वान्त: सुखाय लिखो. मैं इतना आलसी हूँ कि मज़ा ना आए तो नहाता भी नहीं, खाता भी नहीं. जिस पल मज़ा आना बंद हो जाता है तो चिडचिडापन पैदा हो जाता है . सौभाग्य से आर्थिक रूप से इतना सक्षम अपने आप को बना लिया है कि सभी सुविधाएँ हैं, लोग आसपास ऐसे हैं कि मज़ा देते हैं, सबेरा घूमने में मज़ा देता है. शाम को भी बाहर निकलना पसंद करता हूँ, ठंड के दिनों को छोड़कर. बारिश में भी निकलना मज़ा देता है. आज तक बरसाती या छाता लेकर नहीं चला. मजेदार बात बताऊँ कि बारिश में बाहर निकलना होता है तो नीलू कहती है, "बरसाती रख लो, बारिश के आसार हैं." और मज़ा ख़तम. एकदम चिडचिडा जाता हूँ. बरसाती ढूँढने की, साफ़ करने की और बाद में संभालकर रखने की, हर वक़्त उसे हाथ में लिए रहने की ज़हमत को सोच-सोचकर ही मेरा मज़ा ख़तम हो जाता है.
तो, मैं मज़े के लिए ही लिखता हूँ. मुझे आनंद मिलता है इसलिए लिखता हूँ. मेरा पारिश्रमिक वही है जो मै लिखने के आनंद से पा लेता हूँ. जैसे मुझे पहेलियाँ बुझाने में मज़ा मिलता है. रिश्तेदारी वाली पहेलियों को छोड़कर. लिखना एक तरह से पहेलियाँ या जिन्हें अंग्रेजी में कहते हैं पज़ल्स, हल करने जैसा लगता है. सुडोकू, या दूसरी. या शतरंज खेलने में जो मज़ा आता है. छकाने में या खुद छकाये जाने में, बेवकूफ बनने-बनाने में जो मज़ा आता है.
सामाजिक प्रतिबद्धता यदि आ जाये तो ठीक न आये तो ठीक!!
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